Sunday, August 31, 2014

मेहंदी री सौरम (राजस्थानी कविता)





आपणै ब्याव री
पैली तीज रा सातू
आपा गांव में पास्या

आकड़ा रा हरियळ पत्ता
ल्यावण खातर थूं
सहेल्यां सागै गीत गावंती
रिंधरोही मायं गई

आंवती बगत थूं
समलाई नाडी मांय
मैंदी रचिया हाथा स्यूं
आकड़ा रा पत्ता धो लिया

बरसा न बरस बीतग्या
पण नाडी रे पाणी में ओज्यूं
थारे हाथा री मैंहंदी री
सौरम आवै

तीज आंवता ही बोरायोड़ो मन
सपन लोक में खो ज्यावै
थारी यादा पौर-पौर में
उतर ज्यावै।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]




कैसे निभाऊँ अपना कृतव्य







जब तक तुम थी
घर-बाहर के सभी
छोटे-मोटे निर्णय
तुम ले लिया करती थी 

तुम्हारे जाने के बाद 
यह भार मुझ पर
आ गया 

लेकिन मैं
तुम जैसा सामर्थ्य 
कहाँ से लाऊँ 

प्रियजन भी कहते हैं 
अब आपको ही
माँ और बाप दोनों का प्यार 
बच्चों को देना होगा 

लेकिन मैं  
तुम जैसा ह्रदय
कहाँ से लाऊँ 

कल शशि पूछने लगी
दस दिन पिहर जा कर
आ जाऊं क्या ?

मेरी आँखों में अश्रु छलक पड़े
मेरा गला रुँघ गया
मैं केवल इतना कह पाया-
हाँ - ना कहने वाली तो चली गयी
मैं क्या कहूँ ?

अब तुम ही बताओ 
बिना तुम्हारे कैसे निभाऊँ 
मैं यह सब दायित्व 

कहाँ से लाऊँ 
इतना साहस कि 
निभा सकु अपना कृतब्य। 

फिर भी बैठी मेरे अन्तर में




    
    जब से तुम बिछुड़ी हो मुझ से    
       चैन खो गया सारा जीवन से 
      छोड़ अकेला पथ में मुझको   
        तुम पहुंची भू से अम्बर को। 
                                            
                                                     जब भी बात तुम्हारी होती  
                                                    दिल रोता ऑंखें भर आती 
                                                     नयनों में सावन घिर आता    
                                                    मन मेरा विचलित हो जाता।   

           नहीं मिटा पाता यादों को 
    ख़्वाब नहीं दे पाता आँखों को
       चली गयी तुम प्रीत लगाकर
         बिच राह में मुझे छोड़ कर। 

साथ तुम्हारा नहीं भूलूंगा                                     
               जीवन भर मैं याद रखूंगा                                                    
             चली गई तुम दूर क्षितिज में                                                   
   फिर भी बैठी मेरे अन्तर में।                                       
                                      


   
 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]




Tuesday, August 26, 2014

सांसो में उत्तरना



इस बार चौथ पर
मैं नहीं देख सका तुम्हारे
हाथों की मेहंदी 

तुम्हे बहुत शौक था 
लगाने हाथों में 
मेहंदी 

जब भी तुम लगाती
हाथों में मेहंदी 
मुझे आकर जरूर दिखाती

"बताओ कैसी रची है मेरी मेहंदी' 
अपने हाथों को मेरे सामने कर
तुम बार-बार पूछती 

तुम्हे बार-बार मुझसे 
मुस्कराते हुए पूछना
अच्छा लगता

और मुझे तुम्हारे
हाथों की खुशबू का
सांसो में उत्तरना अच्छा लगता। 



 [ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]












Tuesday, August 19, 2014

मन सुखद सपर्श चाहता है




खोया मन
नींद की प्रतीक्षा में 
करवटें बदलता रहता है

आँखों से
ढलकते हैं अश्रु 
तकिया भीगता रहता है 

बेवफा हो जाती है 
दुःख में नींद भी 
वो भी साथ नहीं देती 

मन का दर्द चाहता है
एक सुखद सपर्श
तस्वीर साथ नहीं देती

स्मृतियाँ  
कुरेदती है मन को
दर्द बहता रहता है नयनों से

जैसे कालिदास के 
विरही यक्ष ने भेज दिया हो
मेघो को बरसने नयनों से।  

                                                 

[ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]

Saturday, August 16, 2014

अब वह बात कहाँ ?




पहले थी मोहब्बते जिंदगी
अब वह बात कहाँ ?

सुबह-शाम घूमने जाते
हँस-हँस करके बातें करते
तोड़ फूल हाथों में देते
अब वह बात कहाँ ?

एक दूजे की राह देखते 
साथ बैठ कर खाना खाते
मनुहारों से भोजन करते 
अब वह मजा कहाँ  ?

शाम-सवेरे पूजा करते
भजन-आरती संग में गाते 
रागों की झंकार उठाते
अब वह समा कहाँ ?

जब भी हम फुर्सत में होते 
अपने मन की बातें करते 
पुनर्मिलन की इस जीवन में
अब वह घड़ी कहाँ ?

देश-विदेश घूमने जाते
एक दूजे के संग में रहते 
चाँद-चांदनी संग था अपना 
अब वह साथ कहाँ ?  

पहले थी मोहब्बते जिंदगी
अब वह बात कहाँ ?



 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]



Friday, August 8, 2014

फिर याद तुम्हारी आई







तुमसे बिछुड़े हुए
एक महीना हो गया लेकिन 
मन आज भी नहीं मान रहा 

सोचा जैसे ही घर पहुचुँगा 
तुम सदा की भाँति मुझे 
दरवाजे पर मुस्कराती मिलोगी

और कहोगी-
हाथ मुँह धो कर 
कपड़े बदल लीजिए 
आज मैंने आपकी पसंद का
खाना बनाया है

गुंवार फली और
काचरे की सब्जी के साथ
बाजरे की रोटी और गुड़ 

आपको दोपहर में 
चाय के साथ केक पसंद है 
मैने कल शाम को ही 
केक बना लिया था

पाईनेपल और 
हेलेपिनो मंगा रखा है 
शाम को बना दूंगी पिज्जा

काश ! ऐसा ही होता 
लेकिन तुम तो इतनी दूर 
चली गई कि मैं आवाज भी दूंगा
तो वो भी लौट आएगी

तुम्हारा हाथ
पकड़ने के लिए 
हाथ बढ़ाऊंगा तो वो भी 
खाली हथेली लौट आएगी।



                                                       
                                              [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]

फरीदाबाद
६ अगस्त, २०१४





Sunday, August 3, 2014

एक कहानी का अन्त




तुम्हारे जाने के बाद 
सब कुछ सुनसुना 
लग रहा है 
जीवन भी मौत से
बदतर लगने लगा है 

तुम थी तो जिंदगी
भोर की लालिमा थी 
अब तो वो साँझ की
कालिमा बन गयी है 

अब किस 
आशा के सहारे जीवूं
किस के पास  बैठ कर 
अपने मन की बात कहूं 

अब तो 
घुटन
तड़पन
उदासी
अकेलापन
यही रह गया है
जीवन  में

मेरे जीवन में अब
सुख का सावन कभी
नहीं बरसेगा

जीवन की इस साँझ
का अब कोई सवेरा
नहीं होगा

सुहाने सफर में 
चलते-चलते बीच राह 
तुमने मेरी कहानी का 
अंत कर दिया। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )