Sunday, May 26, 2024

उत्तराखंड के अंतिम छोर के गांव


पिंडर के किनारे-किनारे बस पहाड़ी रफ्तार से ऊपर चढ़ रही है। बस की खिड़की एक जादुई फ्रेम सी बन गई है। सीन हर पल बदल रहे हैं। कभी कर्णप्रयाग में अलकनंदा में मिलने वाली पिंडर की चुलबुली चाल रोमांच पैदा करती है। दाएं, बाएं, सीधे, फिर दाएं, फिर बाएं.. पिंडर में क्या गजब की मस्ती और नजाकत है। पिंडर खिड़की से हटती है, तो कचनार का पेड़ दिखता है, जो इन दिनों सफेद फूलों का गुलदस्ता सा बना हुआ है। उफ्फ क्या रूप निखर आया है इस पेड़ का! खिड़की का यह फ्रेम जेहन में बस जाता है। नजर ठिठक जाती है। और आखिरी झलक तक आंखें उसका पीछा करती हैं। खिड़की से सर्र-सर्र अंदर घुसती हवा के साथ सड़क के किनारे स्कूल जाते बच्चे, पीठ पर घास के अपने से दोगुना बोझ उठाए महिलाएं, पलायन के बाद खंडहर हो चुका घर, जिसकी दीवार पर पिछले चुनाव का बीजेपी का कमल निशान अभी भी मौजूद है... सब दिख रहे हैं, मिट रहे हैं। बस की खिड़की मानो सिनेमा का पर्दा बन गया है। इस पहाड़ी राज्य का हर रूप,रंग, संघर्ष इसमें दिख रहा है।

सूरज ढलने से पहले बस देवाल ब्लॉक के आखिरी गांव वांण में उतार चुकी है। हवा में कुछ ठंडक है। रूपकुंड घाटी का करीब 200 परिवारों वाला यह गांव बेहद खास है। रूपकुंड का रहस्यमय रास्ता यहीं से होकर गुजरता है। बख्तावर सिंह बिष्ट गांव के अपने आंगन में बैठे हैं। गरीबी रेखा से नीचे का जीवन काट रहे हैं। कुछ बकरियां हैं। थोड़ी खेती है। गुजारे लायक आमदनी में जिंदगी की गड्डी चल रही है। 

वांण से 10 किलोमीटर दूर गैरोली पातल। रूपकुंड के रास्ते पर यह एक छोटा सा पड़ाव है। शाम होते ही मौसम बिगड़ गया है। बर्फ के तेज छींटे पड़ने शुरू हो गए हैं। तीखी चढ़ाई के बाद देसी-विदेशी ट्रैकर अपने टैंट में सुस्ता रहे हैं। पास ही वन विभाग की छोटे से हट में वांण, कनोल, सुतोल, कुलिंग, करजा जैसे गांवों के दर्जनभर लड़के ट्रैकर्स के लिए खाना तैयार कर रहे हैं। ये सभी उत्तराखंड के अंतिम छोर के गांव हैं।

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