Monday, December 28, 2015

तकिया भीगता रहा रात भर

पलकों में यादें तरसाती रही रात भर                                                                                            
        नयनों में आस ललसाती रही रात भर  
             विरह में मन तड़पता रहा रात भर  
        यादों में करवटें बदलता रहा रात भर।   
                                                                                        
                                                            राहों में पलकें बिछाता रहा रात भर     
                                                           टूटते ख़्वाबो को सजाता रहा रात भर 
                                                           दर्द भरे नग्में  गुनगुनाता रहा रात भर 
                                                          आरजू का दिया जलाता रहा रात भर। 

  काटों की सेज पर सोता रहा रात भर 
  आसमान में तारे गिनता रहा रात भर 
  बिखरे अरमान समेटता रहा रात भर 
तन्हाई के गीत गुनगुनाता रहा रात भर। 
     

                                                               मिलन का इन्तजार करता रहा रात भर      
                                                               टूटती सांसो को संभालता रहा रात भर        
                                                               यादों से दिल को बहलाता रहा रात भर         
                                                                सिर निचे तकिया भीगता रहा रात भर।                                                                                    
 
   
 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]


Monday, November 2, 2015

तुम्हारी चंचल यादें

बड़ी चंचल है तुम्हारी यादें
    वक्त-बेवक्त,गाहे-बे-गाहे
जब होती मर्जी चली आती है    

 न मन के द्वार पर दस्तक देती  
 न दिल को हरकारा भेजती
 न दिमाग की कॉल बेल बजाती        

        न सुबह-शाम देखती
          न रात-दिन देखती
   पलक झपकते ही चली आती है           

 न कोई आने का अंदेशा
             न कोई सन्देशा
         न ही कोई इशारा

   आती है अचानक ऐसे
   जैसे खामोश झील में
डाल दिया हो किसी ने कंकड़        

जैसे कान्हा के मन्दिर में
           अचानक किसी ने
         बजा दी हो घंटियाँ  
          
  तुम्हारी चंचल यादों की   
      भीनी-भीनी खुशबु
   छा जाती है दिलो दिमाग में।         


 [ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]





Saturday, October 31, 2015

तुम्हारी धरोहर



सारी दुनियाँ
जब सो जाती है
तब मैं खो जाता हूँ
सपनों की गोद में

तुम्हारी यादों के संग
पल-पल गुजरती रातों में
मैं जोड़ता  रहता हूँ
यादों की लड़ियों को

बचपन में तुम्हारा
दुल्हन बन गांव आना
मेरा कॉलेज में पढ़ कर
छुट्टियों में घर आना

लड़ना-झगड़ना
प्यार मोहब्बत
बच्चों का होना
बहुओं का आना

पोते-पोतियों से
आँगन खिलखिलाना
कितना कुछ जीया हमने
इस जीवन में साथ-साथ

ये यादें
धरोहर है तुम्हारी
और जीवन की नाव को
खेने की अब पूंजी है मेरी।



  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]


Wednesday, October 28, 2015

पश्मीना

एक दम
खाटी पश्मीना
जिसे खरीदा था तुमने
कश्मीर से

नेफ्थलीन
की गोलियों के संग
सहेज कर रखती थी तुम
बड़े जतन से

कितने चाव से
पहनती थी तुम
सोहणा लगता था
तुम्हारे बदन से

बड़ा ही नरम
और मुलायम
लगा कर रखती थी
तुम बदन से

कश्मीरी बाला लगती
पहन कर पश्मीना
जैसे ढका हो गुलबदन
फूलों से

मैं जब कहता
लगालो काला टीका
शरमा जाती तुम
ढाँप लेती चेहरा
हाथों से।



 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]






Monday, October 26, 2015

मैंने सौगात में तुम्हें


मैंने सौगात में तुम्हें
एक नदी दी 
तुमने मुझे पूरा समुद्र
दे दिया

मैंने सौगात में तुम्हें
कुछ तारे दिए 
तूमने मुझे पूरा आकाश 
दे दिया 

मैंने सौगात में तुम्हें
कुछ दिशाएं दी 
तुमने मुझे पूरा ब्रमांड 
दे दिया 

मैंने सौगात में तुम्हें 
चंद बूंदे दी 
तुमने मुझे पूरा सावन 
दे दिया

मैंने सौगात में तुम्हें
चुटकी भर सिंदूर दिया
तुमने मुझे पूरा जीवन
दे दिया।




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Thursday, October 15, 2015

यही है संसार

पिता ने
पौध को माली की
तरह से पाल पोस कर
बड़ा किया था

कल्पना की थी
ठंडी छाँव और मीठे
फलों की

पेड़ों की
धमनियों में डाला था
अपना रक्त और जड़ों में
सींचा था अपना पसीना

लेकिन पेड़ों के
बड़े होते ही उनकी साँसों में
बहने लगी जमाने की हवा

अब पेड़ों की छाँव
वहाँ नहीं पड़ती जहाँ
पिता बैठते है

मीठे फलों की जगह
पिता को चखना पड़ता है
कडुवे फलों का स्वाद

जब तब
लगती है मन को ठेस
सिमटते रहते हैं पिता

लाचार
हो जाता है बुढ़ापा
जवान बेटो के आगे

मन में दुःख होता है
पर कह नहीं सकते
किसी को

अपने कमरे में गुमसुम बैठे 
दीवार पर लगी पत्नी की 
तस्वीर देख कहते हैं  
पगली! यही है संसार

उभर आता है
एक तारा आकाश में
सिहर उठता है बेबशी पर।



 ( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Friday, October 9, 2015

आयशा रंग भरती है

आयशा रंग भरती है

सूरज-चाँद, हवाई जहाज में
लाकर दिखाती है मुझे
नन्हें हाथों की कला देख
खुश होता हूँ मैं

पकाती है नन्हें बर्तनों में
अदरक वाली चाय
कम चीनी वाली कॉफी
लाकार देती है मुझे
तृप्त होता हूँ मैं

माँ के दुपट्टे की
पहनती है साड़ी
लगा कर घूँघट
दिखाती है मुझे
शर्माता हूँ मैं

सोने को जाते समय
तोतली आवाज में कहती है
नारायण-नारायण
जय श्रीकृष्ण
प्रत्युत्तर में तुतलाने की
कोशिश करता हूँ मैं।


Wednesday, October 7, 2015

तुम जो चली गई

मंजिलें अब जुदा हो गई, अंजानी अब राहें हैं                                                                                              
जिंदगी अब दर्द बन गई, तुम जो चली गई।

साथ जियेंगे साथ मरेगें, हमने कसमें खाई थी
पचास वर्ष के संग-सफर में, तुम जो चली गई।

जीवन मेरा रीता-रीता,ऑंखें हैं अब भरी-भरी
टूट पड़ा है पहाड़ दुःखों का,तुम जो चली गई।

नहीं काटे कटती है रात, सुख रहा है मेरा गात 
अँखियाँ नीर बहाती रहती, तुम जो चली गई।

अंत समय पास नहीं था, सदा रहेगा इसका दुःख
दिल में मेरे रह कर भी, बिना मिले तुम चली गई।

किससे मन की बात कहूँ ,साथ तुम्हारा रहा नहीं
उमड़ पड़ी है दुःख की नदियाँ, तुम जो चली गई।





                                            [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]




Friday, October 2, 2015

सोच की सीमा

मैं जीना चाहती हूँ
उम्र का हर गुजरता लम्हा
अब केवल तुम्हारे साथ

लेकिन अब तुम्हारे पास
वक्त कहाँ है मेरे लिए
तुम तो अब इसे खुदगर्जी
की संज्ञा देने लग गए

तुम्हारा दिन तो
ऑफिस में बीतता है
शामें मीटिंग में ढलती है
देर रात पार्टियां चलती है

जब घर आते हो
अखबार,टी०वीo और
मोबाइल से घिर जाते हो

मेरे बात करने से पहले ही
राह में खड़ी हो जाती है
ये सारी सौतनें

अगर मेरा बस चलता
तो बंद कर देती अखबार
बेन कर देती टीo वीo के  प्रोग्राम
और मृत्यु दंड दे देती मोबाइल के
आविष्कारक को

मैं जानती हूँ
खुदगर्जी की पराकाष्ठा है यह
अपने से आगे नहीं सोच पाने का
एक मात्र स्वार्थ

पर मैं क्या करूँ
मेरे सोच की सीमा भी तो
तुम्हारे पास आकर
समाप्त हो जाती है।





Thursday, October 1, 2015

जन्म-जन्म का साथ हमारा

  मेरी जीवन की बगिया में
कोयल बन कर तुम चहकी,
   मेरे जीवन  की  राहों  में
सौरभ बन कर तुम महकी।

    मेरा भाग्य संवारा तुमने                                                 
    बादल बन कर छायां की,                                                 
    नया सवेरा आया  तुमसे                                                 
        खुशियों की  बरसाते की।                                                    

       मेरे ह्रदय की रानी बन        
       राज किया तुमने रानी,  
       मेरे मन  मंदिर में बैठी 
     मेरी सौन्दर्यमयी रमणी।    

      सोने जैसे दिन थे अपने                                                           
       चाँदी जैसी प्यारी रातें,                                                           
     सारी-सारी राते जगकर                                                           
        करते हम मन की बातें।                                                            

       कैसे करदु विस्मृत मन से   
        करुणा-प्रेम रूप तिहारा,
      सौ जन्मों का बंधन है यह   
     जन्म-जन्म का साथ हमारा।        


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
















Wednesday, September 30, 2015

सच्चाई की कीमत

जब
मैंने तुमसे पूछा
तुमने
वही कहा
जो मैंने पूछा

जब
तुम से
पुछा गया
जो मैंने सूना
तब
तुमने वो नहीं कहा
जो मैंने सूना

इस
कहने सुनने में
शायद इसी तरह
जिंदगी निकल जाए

काश! तुम
सच्चाई की कीमत
समझो
तो जिंदगी को
जीने का
एक नया अर्थ
मिल जाए। 

Thursday, September 17, 2015

यादों की छाँव में

तुम्हारे बिना
गुजर गया एक साल
यह एक साल मुझे कईं
सदियों से भी बड़ा लगा

यदि मैं तुम्हें कहूँ कि
मेरा एक-एक दिन
पहाड़ जैसा गुजरा
तो भी तुम इसे पुरे सच का
एक हिस्सा भर समझना

पूरा सच तो
मैं ही जानता हूँ कि कैसे
गुजरा है मेरा एक साल
तुम्हारे बिना

बहुत गहराई से
महसूस किया है मैंने
विछोह के दर्द को
इन दिनों में

बार-बार
मन में उमड़ आती है
तुम्हारे साथ बिताए
संग सफर की यादें

भटकता रहता हूँ
तुम्हारी स्मृति के जंगल में
जहाँ मिलने आती है
मुझसे तुम्हारी यादें। 




                                            [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]






Thursday, September 10, 2015

आज भी याद आती है

जिंदगी के राहे-सफर में, तुम मुझे छोड़ चली गई
तुम्हारी प्यार भरी मुस्कान,आज भी याद आती है।

                                                        तुम्हारा दर्पण सा रुप, ओ चन्दन महकती देह  
                                                        संगमरमरी बाहों की, आज भी याद आती है।

तुम्हारा अनन्त प्रेम ओ प्यार भरा स्नेह स्पर्श 
कंचन सी काया की, आज भी याद आती है।                                        
                                                                                  
                                                      
                                                      तुम्हारी पायल की रुनझुन, ओ बिच्छियों की खनक                                                               कोयल सी मीठी आवाज की, आज भी याद आती है।       
                                                 
तुम्हारे मेहंदी लगे हाथ, ओ काजल लगे नैन  
लहराती जुल्फों की, आज भी  याद आती है।                        
                                                   
                                                            तुम्हारी प्यार भरी बातें ओ शोख भरी अदाऐं
                                                             हिरनी सी आँखों की, आज भी याद आती है।



 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]





Tuesday, September 8, 2015

जिंदगी की कीमत

सन्मार्ग हिंदी समाचार पत्र  
७ सितम्बर,२०१५ पृष्ठ संख्या ८

किशोरी से सामूहिक बलात्कार
तालाब में नहाने गए दो छात्र डूबे

बदमाश ने सिपाही को गोली मारी 
ऑटोरिक्शा से ट्रक की टक्कर चार मरे 

पटना में युवक ने की आत्महत्या
ट्रक नदी में गिरा चालक की मौत

ठाणे में दही हांडी उत्सव में
गिरने से मौत

चाय के गर्म घूँट के साथ 
मैं इन सब ख़बरों को 
सहजता से निगल जाता हूँ

मन ही मन तस्सली करता हूँ कि 
इन सब में आज मेरा कोई नहीं था

डूबने वाला लडक़ा मेरा बेटा नहीं था 
बलात्कार की शिकार मेरी बेटी नहीं थी

लेकिन आखिर कब तक
हम सब इस तरह 
लाचारी और बेबसी का 
जीवन जीते रहेंगे ?







Monday, September 7, 2015

बचपन सबका लौट के आया

कहाँ से सीखी इतनी बातें
कहाँ से लाई इतनी सौगातें 

                 करती बातें चटपट-चटपट 
                दौड़ी आती झटपट-झटपट 

करे शरारत आँखें  मटकाती
सबको तिरछी नजर दिखाती

                  पापा   के  कंधे चढ़ जाती 
                 माँ के आँचल में छुप जाती 

दादा आए सबको  कहती 
दौड़ के गोदी में चढ़ जाती 

                  लगे भूख तब रोने लगती   
                 लौरी सुन कर सोने लगती 

खुशियों से घर को महकाया 
बचपन सबका लौट के आया। 
  

Wednesday, September 2, 2015

वो आज सपनें में आई

जिसकी एक झलक पाने को            
मेरी आँखें तरस गई
उसके आते ही आँगन में       
प्रीत रेशमी बिखर गई 
वो आज सपनें में आई। 

मन के सुने अँधियारें में
उसने दीपक राग जलाई  
मधुर छुवन की मीठी यादें   
   उसने आकर के महकाई      
     वो आज सपनें में आई।  

   मन मयूर नाचा मेरा
     आँखें मेरी भर आई
   रात सुहानी कर दी उसने       
रजनीगंधा बन आई
    वो आज सपनें में आई। 

तारे डूबे एक-एक कर
      पूरब में लाली छाई 
फिर मिलने आउंगी तुमसे     
   वादा कर वो चली गई
वो आज सपने में आई। 

                                                                                                        

[ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]



Monday, August 31, 2015

रंग भरे जिन्दगी में

तुमसे बिछुड़ मेरी प्रीत टूट गई जिन्दगी से         
तुम आओ तो फिर से नेह जगे जिन्दगी में।    

पतझड़ का मौसम छा गया मेरी जिन्दगी में    
     तुम आओ तो फिर से बसंत खिले ज़िन्दगी में।            

 सम्भाल रखें हैं मैंने टूटी माला के मनके        
तुम आओ तो फिर से सजाए जिन्दगी में।                        

                                               मुझे हर ख़ुशी मिल भी जाए तो क्या होगा
                                               अगर तुम्हारा  साथ नहीं मिले जिन्दगी में।         

  मुझे और कुछ नहीं चाहिए इस जिन्दगी में                                                                                                  
अगर तुम फिर से हमसफ़र बनो जिन्दगी में।            

    मेरी ये कविताए बंदनवार है प्रतीक्षा की       
   तुम आओ तो फिर से रंग भरे जिन्दगी में।  



                                              [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]



Friday, August 21, 2015

सुख गया नैनों का पानी

 ओ सावन के कारे मेघा,जाकर देना उसको पाती   
बेटे-बहुएँ याद कर रहे, याद कर रही पोती रानी।         

                         बच्चे दादी-दादी करते, बहता नयनों से पानी
                                         बिन दादी के बच्चे, नहीं कर सकते मनमानी।                
        
मीठी-मीठी लौरी गाकर, पोती रोज सुलाया करती                                                                                           परियों की बातें बतलाती, बात नहीं है बहुत पुरानी।                                                                                                        
        दरवाजे पर गुड़ खाने को, आ जाती है धौली-काली         
             कहना उसको याद कर रही,अंगना की तुलसी रानी।           

शाम ढले मंदिर की घण्टी,प्रभु की महिमा जब गाती                                                                                          कहना उसको याद कर रही, घर की दीया ओ बाती।                                                                                                            
       मेरे सुख-दुःख की तुम,मत करना कोई भी बात     
             रोते-रोते सूख गया है, अब मेरे नयनों का पानी।         

 

 यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है ]

Thursday, August 20, 2015

अनुभूति

मेज के सामने बैठा
निस्पंद झांक रहा हूँ
मैं अतीत में

मेरे मानस पटल पर
उतरने लगी है
तुम्हारी यादें

उभरने लगी हैं तस्वीरें
बल्कि पूरा का पूरा
परिदृश्य

बालों को गर्दन के पीछे
समेटती तुम खड़ी हो
मेरे पास

तुम्हारे बदन की
संदली सुगंध
फ़ैल रही है कमरे में

अपनी गर्दन पर
महसूस कर रहा हूँ तुम्हारी
साँसों का गुदगुदा स्पर्श

तुम पढ़ रही हो मेरी लिखी 
कविता की एक-एक पंक्ति
और कह रही हो 
वाह! वाह ! वाह !

सब कुछ
पहले जैसा ही 
स्मरण हो रहा है आज  

लेकिन मेरा बढ़ा हाथ
नहीं छू पा रहा है
तुम्हारा गात।




                                               [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]







Wednesday, August 12, 2015

दही बड़े

दही बड़े भई दही बड़े
खाए उसको छोटे-बड़े

सबसे पहले बड़ा बनाओ
उसके ऊपर दही लगाओ
इमली की चटनी बनवाओ
बड़े प्यार से उसे सजाओ

जब खाने को मन ललचाये
मुंह में जब पानी भर आये
लगा के लाइन हुओ खड़े
सब मिल खाओ दही बड़े। 

दही बड़े भई दही बड़े
खाए उसको छोटे-बड़े।


Tuesday, August 11, 2015

तुम भी कहीं भीगती होगी

मेरे आस-पास
भीगी-भीगी है सुबह-शाम
बादल आज भी आए हैं
बरसाने पानी

पिछले तीन दिनों से
नहीं निकल रहा सूरज 
खिड़की पर हल्की धूप 
कभी-कभार
टपक पड़ती है भूल से 

शहर तो वैसा ही है 
पहले की तरह 
सड़के और गलियाँ
बन गई है ताल-तलैया
गाड़ियाँ रेंग रही है सडको पर 

भीगी हवाएं जब भी
तन से टकराती है
तुम्हारी कोमल छुअन की
मीठी यादें ताजा कर जाती है

गीली आँखों में
उमड़ पड़ते हैं यादों के बादल
मेरे आँखों के बादल से
तुम भी कहीं भीगती होगी।




                                             [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]






Friday, August 7, 2015

मन जब खोया रहता है

मन जब-जब खोया रहता है
चैत की चाँदनी सा सुख देती
तुम्हारी यादें

तन्हाईयाँ जब रुलाती है
जीवन का सम्बल बनती
तुम्हारी यादें

दुःख के बादल जब गहराते
दीप्त तारे सी चमकती
तुम्हारी यादें 

तन्हा दिल जब पुकारता
रात रानी सी गमकती  
तुम्हारी यादें

कितना कुछ जीता है मुझमें
अनमोल सौगातें हैं  
तुम्हारी यादें

लौट आओ एक बार
फिर उसी तरह
जिस तरह मुड़-मुड़ कर
लौट आती है तुम्हारी यादें।



 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]










Friday, July 31, 2015

तुम्हारी यादें - हाइकु

यादें गरजे
सावन की घटा सी
आँखें बरसे।

यादों का पंछी
मन के पिंजरे में
फड़फड़ाए।

सावन झूमा
यादों ने गाठें खोली
तड़फे जिया।

पहली वर्षा
संग-संग भीगना
तुम्हारी यादें।

बिना रोए ही
बहे आँखों से आँसूं
तुम्हारी यादें।

दिल में बसी
आँसुओं में ढलती
तुम्हारी यादें।

छलक आती
पलकों से बदली
तुम्हारी यादें।

सहेज रखी
मन के अल्बम में
तुम्हारी यादें।


  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]


दिल के झरोखे में

आज अकेला
सुनी संध्या में
उदास मन को बहलाने
झांकने लगा तुम्हारी
अलमारी में

अचानक शादी की
पचासवीं वर्ष-गाँठ पर पहनी
तुम्हारी साड़ी
आ गयी मेरे हाथ में

साड़ी को छुआ
तो लगा जैसे तुम समाई हो
उसके रोम-रोम में

तुम्हारी देह की
संदिल गंध समा गई
मेरे पोर-पोर में

लगा जैसे अचानक
कहीं से आकर तुमने मुझे
भर लिया हो बाँहों में

मैं अपलक निहारता रहा
तुम्हारी साड़ी को
तुम्हारी कंचन काया की छवि
छाने लगी मेरी यादों में

चलचित्र की तरह
उस रंग भरी शाम की
तस्वीरें तिरने लगी मेरी आँखों में

आँखों से बहने लगे अश्रु
सारी उदासी बह गई
रह गया केवल तुम्हारा मेरा प्रेम
दिल के झरोखे में।


  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]






Saturday, July 25, 2015

मजा नहीं आता

जीवन के राहे -सफर में बिछुड़ गई हमसफ़र
भीगे नयनों से अब रास्ता भी नजर नहीं आता।        
       
                                                 
                                                        यूँ तो चमन में बहुत से फूल खिले हैं मगर              
                               मेरी चाहत का फूल अब नजर नहीं आता।                    

तुम से बिछुड़ कर दिल का सुकून खो दिया                                                                                                     लोग कहते हैं इस दर्द का मरहम नहीं आता।                                                                                                                                                                                                
          दिन ढलते ही जलने लगते हैं यादों के दीप
            अब तो रात में सुहाना सपना भी नहीं आता।
                     
    संसार  में भरे  पड़े हैं सुन्दर से सुन्दर नज़ारे                                                                                                    मगर तुम्हारा बांकापन अब नजर नहीं आता।                                                                                                          
                    जीवन में छा गए हैं तन्हाई और ग़मों के अँधेरे         
           सांसे चलती है मगर जीने का मजा नहीं आता।


[ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]

Friday, July 24, 2015

हेत हबोळा खावै जी (राजस्थानी कविता)

घाटा-पोटा बिरखा बरसै
बिजल्या चमकै जोर जी,
दादर,मौर,पपीहा बोले 
बागा पड़ग्या झूला जी। 

झुमझुम कर झोला खावै
खेत खड्यो हरियाळो जी,
खड़ी खेत में कामण भीजै
हिचक्यां आवै जोर जी।

हुळक-हुळक ने हिवड़ो रोवै
पीव बसै परदेशां जी,
ऊँचा मंगरा जाय उडीकै 
मेड़या काग उड़ावै जी। 

सावण तीज सुहाणी आई
पिवजी घरां पधारया जी,
घूँघट माइं मुळक कामण
हेत हबोळा खावै जी ।



Thursday, July 23, 2015

अब कहूँ तो भी क्या ?

जीवन के सफर में हम दोनों संग-संग चले                                  
तुम चली गई छोड़ कर, अब कहूँ तो भी क्या ?       

           तुम तो अब आओगी नहीं मेरे संग में हँसने       
       मैं हँस कर जमाने को दिखाऊँ, तो भी क्या  ?

ढलती उम्र में बेसहारा कर चली गई तुम                                                                                                         
बिखर गए सारे अरमान, कहूँ तो भी क्या ?

      अश्क आँखों से ढलते रहते हैं दिन-रात
       बिखर गई जिंदगी, अब कहूँ तो भी क्या ?

मेरा बहारों भरा गुलसन वीरान हो गया   
आँखों से बरसता है सावन, कहूँ तो भी क्या ?            

मैं प्रतीक्षा करता रहा तुम्हारे लौट आने की
 तुम नहीं आई लौट कर,अब कहूँ तो भी क्या ?


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Tuesday, July 21, 2015

पहले वाली बात नहीं

 सब कुछ है पर तुम नहीं 
जीवन में सुख चैन नही
दिन कटता रीता-रीता 
सपनों वाली रात नहीं।

ठाट-बाट छूटा जीवन से 
 होठों पर मुस्कान नहीं
जीवन की सुध-बुध भुला  
काया का भी साथ नहीं।

आँखों में हैं रात गुजरती
 प्यार भरे दिन रहे नहीं 
जीवन फिर से हरा बने
अब ऐसी बरसात नहीं।

मौजो के दिन बीत गए
सुख के सागर रहे नहीं
 दर्द भरा है मेरा जीवन 
  पहले वाली बात नहीं।




                                               [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]





Monday, July 13, 2015

एक बार फिर से

रिमझिम फुहारों में
मन भीगना चाहता है
तुम्हारे संग-संग
एक बार फिर से

धरती की उठती महक में
मन भरना चाहता है
तुम्हें अपनी बाहों में
एक बार फिर से

भीगी घास पर
मन दौड़ना चाहता है
तुम्हारे संग-संग
एक बार फिर से

सावन की बरखा में
मन झूमना चाहता है
तुम्हारे संग-संग
एक बार फिर से

बसंती बहारों में
मन खेलना चाहता है
होली तुम्हारे संग-संग
एक बार फिर से

मेरे प्यार की पनाहों में
हो सके तो लौट आओ
एक बार फिर से।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Thursday, July 9, 2015

मुझको स्कूल जाना है

मम्मी मुझको पढ़ना है
ए.बी.सी.डी लिखना है
भैया के संग रोज सवेरे
मुझको स्कूल जाना है।

कॉपी,पेंसिल लाकर दो
मुझको भी तो लिखना है
सुन्दर सा एक बस्ता दो 
मुझको स्कूल जाना है।

क ख ग से क्ष त्र ज्ञ तक 
जल्दी-जल्दी पढ़ना  है 
स्कूल की ड्रेस मांगा दो 
मुझको स्कूल जाना है।

इंटरवेल में खाना भी 
भैया के संग खाना है 
छुट्टी की घंटी बजने पर
भैया संग घर आना है।  




Friday, July 3, 2015

मरुधर वाला देश (राजस्थानी कविता)

चालो रे साथीड़ा चाला 
मरुधर वाला देश

सावण सुरंगों लागीयो 
कोई रिमझिम बरसे मेह 
बागा बोल्या मोरिया
कोई चौमासा रो नेह।

बाजरी री नूंवी कूंपळा
गीत मिलण रा गावै,
आपाने आयोड़ा देख
हिवड़ै हरख मनावै।

मोरण, बोर, काकड़ी 
मीठा गटक मतीर 
चौमासा में घणा उडीके 
गाँव-गळी रा बीर। 

पलक बिछावै भायळा 
हिवड़े करे दुलार 
सोनळ बरणा धोरिया 
घणी करे मनवार। 

ऊँटा चमकै गोरबन्द
पग नेवर झणकार    
अलगोजा री तान पर 
घणों करे सत्कार।