Tuesday, December 14, 2021

जवानी


बला है, कहर है, आफत है यह जवानी, 
चेहरे पर चार चाँद लगा देती है  जवानी,
पैगाम - ए - मोहब्बत की बहारें लाती है,
उम्मीदों की कलियां खिला देती जवानी। 

मुस्कराना और  झेंपना सिखाती जवानी,
इश्क़े - इजहार करना सिखाती  जवानी,
हौसलों  की उड़ाने  सफलता  चूमती है,
जब लक्ष्य पर निशाना साधती है जवानी। 

एक तो थोड़ी जिन्दगी फिर यह जवानी, 
देखते ही देखते फिसल जाती है जवानी, 
कातिल अदाएँ जब भी क़यामत ढाती है,
मर मिटने को तैयार हो जाती है जवानी। 

बहते दरिया सी अल्हड होती है जवानी,
मौजो की रवानी नादान होती है जवानी,
दिल  की हसरतें दिल में ही रह जाती है, 
बुढ़ापे का हाथ थमा चली जाती जवानी।





Friday, December 10, 2021

बचपन



मेरा मन तो आज भी 
उस बचपन को जीना चाहता है, 
माँ  के पल्लू के पीछे 
एक बार फिर से छिपना चाहता है। 

बेपरवाह हो कर 
भोलेपन से मिलना चाहता है, 
मासूमियत भरी मस्ती में 
फिर से लौट जाना चाहता है। 

चंचल चपल हो कर
फ़िक्र को धूंए में उड़ाना चाहता है,
बचपन के साथियों के संग 
फिर नादानियाँ करना चाहता है। 

मासूमियत भरा दिल लेकर
जी भर दौड़ लगाना चाहता है,
छुपे दोस्तों को ढूँढ कर 
फिर से खिलखिलाना चाहता है। 

बचपन की गलियों में 
एक बार फिर खेलना चाहता है
बरखा के बहते पानी में 
कागज की नाव चलना चाहता है। 

भोली सी शैतानियों संग 
मीठी मुस्कानों को जीना चाहता है,
बचपन की खुशियों भरे 
झोले को फिर से ढूंढना चाहता है। 














Wednesday, December 8, 2021

जवानी बीत गई

जवानी बीत गई 
बुढ़ापा आ गया है अब। 

कजरारी आँखों पर 
चश्मा लग गया है अब,
काले घुँघराले बाल 
सफ़ेद होने लगे हैं अब। 

जवानी बीत गई 
बुढ़ापा आ गया है अब। 

कानों से कम सुनाई देता 
दांत टूटने लगे हैं अब,
बढ़ते घुटनों के दर्द से 
नींद हराम होने लगी है अब। 

जवानी बीत गई 
बुढ़ापा आ गया है अब। 

रोबिली मस्ती भरी चाल 
डगमगाने लगी  है अब, 
मुस्कराहट भरे गालों पर 
झुर्रियां पड़ने लगी है अब।  

जवानी बीत गई 
बुढ़ापा आ गया है अब। 

धुरी पर रहा जीवन 
हाशिये पर आ गया है अब,
हमसफ़र बिछुड़ गए 
बीते पल याद आते हैं अब। 

जवानी बीत गई 
बुढ़ापा आ गया है अब। 

नहीं बनाओ दूरियाँ 
नजदीकियाँ बनाओ अब, 
कब थम जाए जीवन सांसे
भरोसा नहीं है अब। 

जवानी बीत गई 
बुढ़ापा आ गया है अब। 







Wednesday, October 20, 2021

सबसूं प्यारो लागै, म्हाने म्हारो गांव ( राजस्थानी कविता )

भातो लेकर चाली गौरड़ी  
गीगो गोदी मांय, 
झाड़को तो करी मस्करी 
काँटो गड्ग्यो पांव,  
सबसूं प्यारो लागै 
म्हाने म्हारो गांव। 

जबर जमानो अबकी हुयो   
भरग्या कोठी ठांव,  
मेड़ी ऊपर बैठ्यो कागळो 
बोले कांव - कांव, 
सबसूं प्यारो लागै 
म्हाने म्हारो गांव। 

फौज स्यूं रिटायर बाबो 
बैठ्यो पोळी मांय, 
आया गया ने कोथ सुनावै 
दे मूंछ्या पर ताव, 
सबसूं प्यारो लागै 
म्हाने म्हारो गांव। 

टाबर खेळ लुकमींचणी
घर री बाखळ मांय, 
मोर-मोरनी छतरी ताणै 
बड़-पीपल री छांव, 
सबसूं प्यारो लागै 
म्हाने म्हारो गांव। 



Monday, September 27, 2021

टीका लगा कोरोना को दूर भगाना है

दीवाली पर उम्मीदों के पंख लगाना है, 
थके हुए  कदमों की पीड़ा को हरना है,  
आशा की किरणों को मुट्ठी में भरना है, 
हर पनीली आँखों  में स्वपन सजाना है, 
टीका  लगा कोरोना को दूर  भगाना है। 

हर घर खुशियों के अब दीप जलाना है,
सारे कष्टों को भूल अब जोश जगाना है,
निराशा के अन्धकार से बाहर आना है,
हर दिल में आशा की किरण जगाना है,
टीका  लगा कोरोना  को दूर भगाना है। 

चिंता और दुःखों से अब मुक्ति पाना है,
मिलने-मिलाने के दिन फिर से लाना हैं, 
बाधाओं की दीवारों को आज तोड़ना है, 
जीवन में बहारों को  फिर से सजाना है,
टीका  लगा  कोरोना  को दूर भगाना है। 


Saturday, September 25, 2021

मस्त रहो खाओ-पीओ मत करो तुम फ़िकर

मस्त रहो खाओ-पीओ मत करो तुम फ़िकर,
नाचते - गाते हुए पूरा करो जीवन का सफर,
कौन साथ लेकर आया कौन साथ ले जाएगा,
साथ तुम्हारे जाएगा वो भलाई का काम कर। 

स्वार्थ भरी सारी  दुनिया देखलो चाहे जिधर,
बेटा  भी नहीं  बात  करता पास में बैठ कर,
एक दिन चले जाओगे सभी कुछ छोड़ यहाँ,
सबकी झोली भर चलो अपने हाथों बाँट कर। 

जो संसार का नियंता उस प्रभु को कर नमन,
उसकी भृकुटि मात्र से होता यहाँ आवागमन,
कोई भी कर्म करो उससे नहीं छिपा सकोगे,
वह है सर्व काल द्रष्टा वह सभी का प्राण धन। 

चन्द्रमा क्यों मंगल ग्रह सबको ले जा साथ में ,
जिन्दगी का एक भी पल नहीं तुम्हारे हाथ में, 
ओस के कण की तरह यह जिंदगी है हमारी, 
अन्त में जाना नहीं है कुछ भी हमारे साथ में। 



Tuesday, September 21, 2021

तुम थी मेरी रजनीगंधा

स्पर्श तुम्हारा प्यारा होता  
मधु स्वर कानों में कहती,
मेरा  सिर  गोदी  में रहता 
बालों  को  तुम  सहलाती,
तुम  थी  मेरी  रजनीगंधा। 

भावों  में मैं डूबा  रहता 
मस्ती  सांसों  में   रहती, 
मेरे  मन  की  बातों  को 
नयनों  से  तुम पढ़ लेती,
तुम थी मेरी  रजनीगंधा। 

घर आँगन की थी शोभा 
नूपुर  सी  बजती  रहती,
तुम से मेल युगों का मेरा  
स्मृतियों  में  तुम  रहती,  
तुम थी मेरी  रजनीगंधा। 

ग्रीष्म में  शीतल छाया
घोर शीत  में गर्मी देती, 
महकाई जीवन की रातें
साँसों में  खुशबू भरती,
तुम थी मेरी रजनीगंधा। 
 

Friday, September 10, 2021

तन्हाई भरी जिंदगी हमारी है

कल तक तो बातें हमारी होती थी 
अब तो बातें केवल तुम्हारी है। 

महसूस करता हूँ हर पल मैं तुम्हें 
मेरे संग परछाई तुम्हारी है। 

कटता है हर पल सदियों के बराबर 
मेरे दिल में आज भी यादें तुम्हारी है। 

तुम्हारे जाने के बाद मैंने हर घड़ी 
तुम्हारी यादों के संग गुजारी है। 

मौत सच्चाई है एक दिन सभी को आनी है 
मुझे हर रोज मारती जुदाई तुम्हारी है। 

गिर पड़ते आँखों से आँसू कागज़ पर 
टूटे दिल की दुःख भरी शायरी है। 

धड़कने अब पहले जैसी नहीं धड़कती 
जीवन का सफर तो फिर भी जारी है। 

दिल का दर्द सुनाएं तो किसको सुनाएं 
तन्हाई भरी जिंदगी अब हमारी है। 



Friday, September 3, 2021

शहर

खेत बिक रहें है इमारते बन रही हैं यहाँ 
अँधी रफ़्तार से भागता जा रहा है शहर। 

चकाचौंध भरी जिन्दगी लुभाती है यहाँ 
युवाओं को सब्जबाग़ दिखाता है शहर। 

इन्शान-इन्शान को नहीं पहचानता यहाँ 
स्वार्थ के जाल में फंसा चलता  है शहर। 

बसों ट्रामों में लटक लोग चलते हैं यहाँ 
जिन्दी  लाशों  को ढोता रहता है शहर। 

पड़ोसी-पड़ोसी को नहीं पहचानता यहाँ 
बंद  दरवाजों  के पिछे  बसता है शहर।

लाखों की भीड़ में अकेला आदमी यहाँ
नम्बरों के सहारे ही पहचानता है शहर। 

बेरोजगारों को भी नौकरी मिलती यहाँ 
गाँवों  पर यह अहसान करता है शहर। 


Monday, August 23, 2021

गुलदस्ता

सबकी  प्रशंसा की  भूख  बढ़ गई 
परिवार  वालों से   दूरिया बढ़ गई 
वाह वाह कहने वाले रिश्ते जो बने 
खून के  रिश्तों में  दरारे  पड़ गई। 

प्रभु ने हम सब को इन्शान बनाया 
हमने नए धर्म और पंथ को चलाया 
अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ बता कर
फिर एक दूजे को काफिर बताया। 

जो आया है उसे  एक दिन जाना है 
कागज़ की नाव को तो डूब जाना है  
रोज मरने वालों को हम देख रहें हैं 
फिर भी हमने इसे नहीं पहचाना है।

दिन भर मोबाईल पर चैट करते हैं 
हर समय उसको साथ में  रखते हैं 
रेडिएशन से बिमारियाँ  बढ़ रही है 
फिर भी सभी लापरवाही करते हैं।  


Saturday, August 21, 2021

फूलों की हँसी

रहती थी एक परी 
फूलों के घर में
विद्यादेवी ले गई उसे 
सात समंदर पार 
घर के फूल उदास हो गए। 

अपनी अनवरत साधना के बल 
परी एक दिन सफल हुई 
विद्यादेवी से वरदान पाने में 
अपना नाम रोशन कर 
परी निकल गई विद्यामंदिर से। 

बाहर मुद्राराक्षस ने 
अपना जाल फैला रखा था 
परी अनजाने में फंस गई जाल में। 

क्या परी अब 
मुद्राराक्षस के तिलस्म को तोड़ पाएगी ?
डॉलर के मायालोक को छोड़ पाएगी ?
सभी प्रश्न तो सामने खड़े हैं। 

घर के फूल तो आज भी उदास है
परी का स्वदेश लौट कर आना ही 
घर के आँगन की ख़ुशी 
और फूलों की हँसी है। 


 


रिश्तों की रूबाइयाँ


मैं अब कोई तर्क  नहीं करता 
सब की चुपचाप सुनता रहता 
जीवन  की  साँझ  ढलने लगी  
अब बोल कर भी क्या करता। 

किसी से कुछ नहीं कहना है 
रिश्तों को  केवल  निभाना है 
कुछ चोटें जो दिल  पर लगी 
उन्हें भी चुपचाप ही सहना है। 

जीवन का उद्देश्य बदल गया 
धन-दौलत सब कुछ हो गया 
कहते थे जिसे  हाथ  का मेल 
वही आज सब कुछ हो गया। 

स्वार्थ में बेटे भी रिस्ता भूल गए 
माँ बाप का अहसान भूल गए 
कड़वे बोल इस तरह से बोले 
जिंदगी भर का घाव कर गए।  

बाप बेटे की सुनकर भी जीता है 
दर्द सह कर रिश्ता निभाता है 
क्या करे वो बाप जो कहलाता 
गम खाता और  आँसूं पीता है। 


Monday, August 16, 2021

मेरे जीवन की स्वर्णिम निधि

तुम थी मेरी जीवन-साथी 
तुम थी जीवन की आशा,
जन्म-जन्म तक साथ रहें 
यह  थी प्यारी अभिलाषा।  

दुःख-सुख दोनों एक भाव 
हमने सब संग - संग झेला,
जीवन का आनन्द उठाया 
हर मौसम  हँस कर झेला। 

धुप-छाँव के इस जीवन में 
तुमने  मेरा  साथ  निभाया,
चारों  पुत्रों को  पढ़ा लिखा 
तुमने उनको योग्य बनाया। 

सुन्दर - सुन्दर  बहुऍं आई 
उनसे  सदा  प्रशंसा   पाई, 
मान -  मर्यादा में  रह कर 
तुमने अपनी  धाक जमाई। 

चार पोते और तीन पोतियाँ  
उनको दिनी  स्नेहिल छाया, 
नाम सुशीला किया सार्थक 
मेरा  सदा सम्मान  बढ़ाया। 

Friday, August 13, 2021

रजनीगंधा महकाने कब आओगी ?

हे गुलाबी अधरों वाली 
मेरी रूपसि !
तुम सप्त-सुर सजाने कब आओगी।           
सावन की भीगी रातों में 
अमृत कण बरसाने कब आओगी।  

हे शबनमी नेत्रों वाली 
मेरी प्रेयसी !
तुम नेह-निमंत्रण देने कब आओगी, 
अभिलाषाओं की गलियों में 
नयनों का प्यार बरसाने कब आओगी ? 

हे मृदु कपोलों वाली 
मेरी मानिनी !
तुम प्रणय गीत सुनाने कब आओगी, 
मदभरे प्यारे मौसम में 
यौवन मदिरा बरसाने कब आओगी ?

हे कोमलांगिनी 
मेरी मोहिनी !     
तुम पायल की रुनझुन सुनाने कब आओगी।
मेरे सपनों के मधुबन में 
रजनीगंधा महकाने कब आओगी ? 



Saturday, August 7, 2021

बादल गरजे बरसे कौनी ( राजस्थानी कविता )

बादल गरजे बरसे कौनी 
बळती चालै  जबर घणी
सोनळ धोरां धधके बालू 
बळबा लागी कणी-कणी। 

राह देखता  आँख्यां रेगी 
बरसे  सूरज  लाय  घणी, 
खेता माईं   धान सूकग्यो 
कठै लुकग्यौ म्हेरो धणी।
 
तीसा मरता  डांगर मरग्या 
ताल - तैलया सुख्या पाणी, 
रिणरोही में  उड़ै बघुलिया 
कद बरसलो अम्बर पाणी। 

सावण उतर भादौ  लागग्यो 
ईन्दर  बरस्यो  कौनी  पाणी 
आवो सगळां बिरख लगावा 
जद  बरसलो  अम्बर  पाणी। 





Monday, August 2, 2021

ईश्वर और कवि

ईश्वर और कवि 
दोनों का काम ही 
सृजन करना है 

ईश्वर मनुष्य का 
और कवि कविता का 
सृजन करता है 

कवि खुश होता है 
कविता का सृजन कर के 
होता है उसके प्रति समर्पित 

क्या ईश्वर भी अब 
खुश है अपनी कृति से 
समर्पित है अपनी रचना को ?





Saturday, July 31, 2021

कविताएँ उदास क्यों हैं' ?

वह आज मेरे सपने में आई
उसने मेरी तरफ देख पूछा -
'तुम्हारी कविताएँ
इतनी उदास क्यों हैं' ? 

मैंने एक फीकी मुस्कान के साथ
उसकी ओर देखा 
उसने अपनी नजरे घुमा ली 

मेरी कविताओं की पुस्तक 
हाथ में लेकर 
अपनी लरजती अँगुलियों से 
सहलाने लगी

मेरा नया कविता संग्रह 
"स्मृति मेघ" था। 





Thursday, July 29, 2021

स्नेहिल आँचल को नमन

जीवन के मझधार समय 
आया एक तूफ़ान प्रबल, 
जीवन साथी बिछुड़ गया 
टूट गया जीवन सम्बल। 

पतझड़ आया जीवन में 
मधुमासी सपने रंग धुले, 
रूठ  गई  चाँदनी  रातें 
तम सधन के पंख खुले। 

विरह वेदना मन में छाई 
अश्क झरे फिरआँखों से 
जीवन सपने चूर हो गए 
उसके एक चले जाने से। 

भारी मन की गीली आँखें 
मन में है अनजानी तपन,
उपकारों की याद शेष है 
स्नेहिल आँचल को नमन। 
 

Saturday, July 17, 2021

रुबाइयाँ

चार दिनों के जीवन में तुम भी कुछ कर लो।
चार दिनों  की रात  चाँदनी  प्यार से भर लो।
चार दिनों का सारा खेल सबको गले लगालो,
दुनिया तुमको  याद करे  ऐसा कुछ कर लो।

दिन सुबह उगता है शाम को ढल जाता है।
सूर्य आता है सुबह शाम को फिर जाता है।
फ़लसफ़ा इस जीवन का  बस इतना ही है,
जीवन  आता है  और आ के चला जाता है। 

घर में घु सता हूँ घर से बाहर निकलता हूँ।
करने के  लिए अब मैं कुछ नहीं करता हूँ।
रोज अखबार के पन्नों को पलट कर पढ़ते, 
वक़्त को काटता हूँ उम्र को हल करता हूँ।

सभी  कुछ  होकर भी अपना कुछ नहीं है।
जिन्दगी  मौत पर अपना कोई  बस नहीं है।
तुम जितना  चाहो जोड़ कर रख लो घर में,
साथ में जाना तुम्हारे एक दमड़ी भी नहीं है।

Wednesday, July 14, 2021

प्रजातंत्र और नेताजी

नेताजी बड़े सरल-सजन लगते हैं, गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं। 
देश आज इन्हीं से चलता है, विकास दौड़े नहीं यही ध्यान रखते हैं। 

नेताजी सोच-समझ योजना बनाते, देश भलाई का ध्यान रखते हैं। 
देश का भला हो या नहीं हो, अपना भला सात पीढ़ी तक करते हैं। 

राजनीति करना धंधा बन गया, अब ईमानदार लोग नहीं करते हैं। 
जो करते हैं वो भी एक करोड़ खर्च करके,एक सौ करोड़ बनाते हैं। 

पुलिस, सरकारी कर्मचारी नेताओं की,  वसूली का काम करते हैं 
किसके यहाँ से कितना वसूलना, यह सब नेताजी बताया करते हैं। 

रैलियों के लिए भीड़ जुटाने का काम, आज कल ठेकेदार करते हैं 
किस को कितनी भीड़ चाहिए, उसका इंतजाम मिनटों में करते हैं।

देखो प्रजातंत्र का देश में कैसा हाल है, मार के आगे सब बेहाल है। 
विपक्ष में नारे लगाने वाले भी, लौट कर जीत के खेमे में आ जाते हैं।*

* बंगाल के चुनाव में अभी यही हुवा है।  


Friday, July 9, 2021

फिर भी मैं चलता रहा

उसकी शरारतें याद कर, रात भर जागता रहा। 
उसकी हँसी ओ दिल्लगी से, मन बहलाता रहा।। 

मैं तो अब लम्बी जिंदगी नहीं, मौत मांग रहा। 
मौत के बाद, उसके दीदार की हसरत मांग रहा।  

मैं उससे लड़ता रहा, लड़के हारता भी रहा। 
मगर हार करके भी, उसी से फिर लड़ता रहा।।

आँखें बंद किये मैं रात भर, ख्वाब देखता रहा। 
ख़्वाब में मिलने आएगी, यही आश लगाए रहा।।   

मुड़ मुड़ जो देखती थी, उसका संग नहीं रहा। 
मैं भी उसे भूलते-भुलाते, वक्त को काटते रहा।।   
           
दिल में यादें संजोए, आँखों में पानी भरता रहा। 
न मंजिल न हमसफ़र, फिर भी मैं चलता रहा।। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )


Thursday, July 8, 2021

तभी धड़कनें बढ़ती हैं

यदि जोश है उमंग है, तो कायनात तुम्हारी है। 
जिन्दादिली के आभाव में, जीना भी बेकार है।। 

प्यार अंधा प्यार गूंगा और प्यार बहरा होता है। 
शोख़ उमर क्या-क्या कर बैठे कौन जानता है।। 

बचपन की उम्र तो, शोखियों में निकल जाती है। 
जवानी की गाँठ लगते ही, चाल बदल जाती है।।  

आँखों में हैं स्वप्न मेरे, यादों में कविता ढलती है। 
कहीं दूर से आती आवाज़, जैसे अभी बुलाती है।। 

चाहे जितने दुःख आए, जिंदगी नहीं रुकती है। 
जवानियाँ आती रहती है, और जाती रहती है।। 

जब भी बिजली कड़कती है, हिचकी आती है। 
बात कुछ तो है कहीं, तभी धड़कनें बढ़ती हैं।। 




( यह कविता "स्मृति मेघ" में छप गई है। )

Saturday, June 26, 2021

बंगाल में चुनावी हिंसा

वो जीत पर अट्टहास लगा रहें हैं 
विपक्षी पार्टियों को वोट नहीं 
देने का सबक सीखा रहें हैं। 

उनके घरों में घुस कर 
मार-काट कर रहें हैं 
दफ्तरों को तोड़ रहें हैं। 

दुकानों को लूट रहें हैं 
घरों में आग लगा रहे हैं 
औरतों के साथ रेप कर रहें हैं। 

सैंकड़ों को मारा गया 
सैकड़ों ही मर गए 
बच्चों के पेट में छूरे घोंप रहें है। 

चारों तरफ से चीत्कारों 
की आवाजें गूंज रही है 
कोई उन्हें बचाने वाला नहीं है। 

युवतियाँ वैधव्य पर रो रही है 
बच्चे डर कर छिप रहें हैं 
बूढ़े माता-पिता छाती पीट रहें हैं। 

लेकिन उनके घिनौने 
चहरों पर मुस्कराहट है
सब बेखौप सीना ताने
गांवों की गलियों में घूम रहें हैं।  

बदले की भावना में 
उनकी संवेदनाऐं मर चुकी है 
उनकी मानवता 
राक्षसी भट्टी में राख बन चुकी है। 



Sunday, May 16, 2021

बंगाल में चुनाव आया

बंगाल में चुनाव आया 
रेलियों ने शोर मचाया,
मौत ने तांडव दिखाया 
झोली भर आँसू लाया। 

गोलियाँ चली लोग मरे 
लाठियों पर वोट गिरे,
गुण्डों से सब लोग डरे 
विपक्षी नेता खूब मरे। 

सर फूटे ओ घर टूटे 
गली-गली बम फूटे,
साड़ियां-ब्लाउज फटे 
रहा-सहा सब लुटे। 

घरों से भी बेघर हुए 
आबरू के तार हुए, 
जान को बचाते हुए 
भागने को लाचार हुए। 

जम कर लूटपाट हुई 
शवों पर राजनीति हुई, 
प्रजातंत्र की हार हुई 
बाहुबल की जीत हुई। 







Saturday, May 15, 2021

कोरोना से कैसा डर

कोरोना से कैसा डर,आया है चला जाएगा 
तू सकारात्मकता से सोच कर के तो देख।  

कोरोना को हम सब,  साथ मिल हराएँगे 
तू एक बार कदम आगे बढ़ा कर तो देख। 

छंट जायेंगे बादल, संशय और जड़ता के 
तू एक बार मन में साहस भर के तो देख। 

कट जाएगी रात, सवेरा निश्चिन्त आएगा 
तू एक  बार खिड़की खोल कर तो देख। 

आसमान को छू लेना कोई मुश्किल नहीं 
तू बस एक बार हाथ उठा कर के तो देख। 

बैठते थे हम जहाँ कॉफी पीने साथ -साथ 
मैं आज वहाँ जा रहा हूँ, तू भी आ के देख। 

पुरानी यादों का पिटारा फिर खुल जाएगा 
तू एक बार चाय पर बुला कर के तो देख। 

ठहाकों की महफ़िल जल्द ही फिर सजेगी 
तू एक बार फिर से आवाज देकर तो देख। 




( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )

Friday, May 14, 2021

बिना तुम्हारे क्या जीना

बिना तुम्हारे क्या जीना
अब जीवन में सार नहीं,
सफर सुहाना टूट गया
अब रुचता शृंगार नहीं।  

साथ तुम्हारा छूट गया 
अब कोई संगीत नहीं, 
जीवन वाद्य बिखर गया 
अब कोई झंकार नहीं। 

बिन साथी के जीवन कैसा
बिना तान के राग नहीं,
दिल पर गहरी चोट लगी 
पर होती है टंकार नहीं। 

तुम से ही तो था जीवन 
अब तो कोई साथ नहीं,
बिना तुम्हारे संग-सफर 
अब जीना स्वीकार नहीं। 

कितने सपने हमने देखे
अब तो कोई चाह नहीं, 
भाग्य जगा था संग तुम्हारे 
अब कोई अधिकार नहीं। 



Wednesday, May 5, 2021

यह दिन तो सकुशल गुजर गया

दिन तो सकुशल गुजर गया 
रात बस अब ढलने को है,
जीवन-सफर तो रीत गया
अब नए सफर की तैयारी है। 

सब कुछ तो कर लिया 
फिर भी प्यास बुझी नही,
यह आदिकाल से बनी रही
आजीवन तो मिटी नहीं। 

इच्छा तो बढ़ती जाती है
वो कभी नहीं घटती प्यारे,
पर ये साँसें तो सीमित हैं
वे कभी नहीं बढ़तीं प्यारे।

रूप-चाँदनी दो दिन की
क्षणभंगुर यह जीवन है,
जो आया है वह जायेगा
कोई भी नहीं अनश्वर है। 

अब आवाहित को आना है
इस पंछी को उड़ जाना है,
और कंचन जैसी काया को
कुछ क्षण में जल जाना है। 

( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )







Sunday, May 2, 2021

समय बहुत बुरा आया

समय बहुत बुरा आया,  घर में रहने को मजबूर 
घर के दीपक बुझ रहें, सपने हो रहे सबके चूर। 

                                         छोटा सा एक कोरोना वायरस, निकला बड़ा मगरूर
                                          यह मौत का सौदागर निकला, ले जाता दुनिया से दूर। 
                                       
आतंक इसका इतना फैला, विश्व  में हो गया मशहूर
इससे यदि बचना है, प्रतिरोधक समता बढ़ाएँ जरूर। 

                                               एक वायरस ने तोड़ा, पूरी मानव जाति का गुरुर
                                               हाथ मिलाना, गले लगाना,  इसको नहीं है मंजूर।             

इससे यदि बचना चाहो, सबको रहना होगा दूर- दूर         
मुँह पर मास्क लगाओ सभी, बना इसे जीवन दस्तूर।

                                              बार-बार हाथों को धोना, करते रहना सब जरूर                                                                                                       निरोधक क्षमता वाले ही, बचा पाएंगे अपना नूर।  
                                              

( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )




Friday, April 23, 2021

कुम्भ का मेला

हरिद्वार में 
कुम्भ का मेला  
लाखों की संख्या में साधु -संत 
और नागा सन्यासी 
बहुत बड़ा भक्तों का रेला। 

पंडालों में चारो तरफ 
भजन-कीर्तन चल रहा 
कहीं कम्बल बँट रहा 
तो कहीं भंडारा चल रहा। 

महामण्डलेश्वर आचार्य 
महामण्डलेश्वर महंत और 
अखाड़ों का बड़ा जमघट 
कोरोना महामारी का 
सबसे बड़ा संकट। 

सरकारी गाईड लाइन्स का 
पालन नहीं हो रहा 
हजारों में कोरोना संक्रमण 
फ़ैलता जा रहा। 

भक्तगण निश्चिन्त
कहीं भय का भाव नहीं 
जहाँ ईश्वर साथ है 
वहाँ डर का कोई प्रभाव नहीं। 


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )



 

Wednesday, April 21, 2021

कितना अच्छा लगता है

संध्या के समय 
गीता भवन के घाट पर 
नौका में बैठ कर 
नदी में बहती 
सुनहली-रुपहली 
मछलियों को देखते हुए 
आटे की गोलियाँ डालना
कितनाअच्छा लगता है ? 

गंगा की निर्मल लहरों को 
एक टक देखना 
और देखते-देखते 
स्वयं उनमें खो जाना 
कुछ देर के लिए ही सही 
मगर कितना अच्छा लगता है ?  


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

असमर्थों का मान

अयोध्या में हनुमान ढ़ी
हनुमान जी का प्रशिद्ध मंदिर 
अंदर भक्तों की भीड़ 
आरती और जयकारों से 
गूंजता मंदिर। 

बाहर सीढ़ियों के पास 
भिखारियों की 
लम्बी कतारें 
पंक्तिबद्ध बैठे हैं भिखारी 
सामने तसलों की कतारें। 

भक्तगण 
आते हैं बाहर 
फेंकते है चंद सिक्कें 
गिर जाते हैं 
कटोरों के भीतर-बाहर। 

मन में नहीं है भाव
कि इनको भी दें आदर से 
असमर्थों का मान भी 
बढ़ाया जा सकता है 
हाथ में देकर प्यार से। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Tuesday, April 20, 2021

जब मैं नहीं रहूँगा

जब मैं नहीं रहूँगा 
तब कोई नहीं आयेगा 
मेरा नाम लेकर बुलाने 
कि भागीरथ जी 
है क्या घर मे ? 

जब मैं नहीं रहुँगा 
फिर कोई दोस्त 
नहीं आएगा 
मेरे बारे में पूछने 
कभी इस घर में। 

जब मैं नहीं रहूँगा 
गाँव के लोग पुछेंगे 
कहाँ  रह गये 
हम सब के साथी 
क्या छोड़ आये घर में। 

जब मैं नहीं रहूँगा 
कुछ वर्षों बाद 
आगंतुक पूछेंगे 
किस की लगी है 
यह तस्वीर घर में। 


Wednesday, April 14, 2021

मातृभाषा कराह रही है

आज के बच्चे जो 
पढ़-लिख गए हैं 
अंग्रेजी बोलने में ही 
गर्व का अनुभव करते हैं।   

अपनी मातृभाषा में 
बात करने में अब 
उनकी जबान ऐंठती है। 

ठंडे ज़ायक़े को 
दिमाग में घोलते हुये 
विदेशी भाषा बोलने में ही 
अपनी शान समझते है। 

भूले से भी नहीं दिखती 
उन्हें अपनी जमीन  
जिसकी जड़ों को लगातार 
काट रहे हैं। 

आत्मप्रदर्शन और   
आत्मप्रशंषा के शिकार 
खुदगर्जों के पार्श्व में बैठी 
मातृभाषा आज कराह रही है। 



( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )





Thursday, April 1, 2021

स्मृति मेघ

छा रहे हैं स्मृति मेघ 
       मेरे मन-पटल पर
             भूल पाना है कठिन 
                    एक पल भी भूल कर। 


आज भी खुशियाँ बिखेरे 
        प्रिय ! स्मृति मेघ तुम्हारे 
             खुशियों के फूल खिलाये
                   जीवन की राहों पर मेरे। 

तेरे गीतों की सरगम पर 
     मैंने यह साज उठाया है
              तेरी यादों के साये में 
                   ये स्मृति मेघ रचाया है।  

इन स्मृति मेघ के छन्दों में
      बस याद तुम्हारी बनी रहे
           मेरे मन की सीमाओं पर 
               तेरी ही प्रिये! पहचान रहे।


##################

Sunday, March 28, 2021

गांव बदल गया है

बाजरी की रोटी
      दूध भरा कटोरा 
            कहीं खो गया है
                  गांव शहर चला गया है। 

चौपाल की बैठक 
       चिलमों का धुँवा 
             कहीं खो गया है 
                     गांव शहर चला गया है। 

गौरी की चितवन 
       गबरू का बांकापन 
              कहीं खो गया है 
                     गांव शहर चला गया है। 

होली की घीनड़ 
      गणगौर का मेला 
            कहीं खो गया है 
                   गांव शहर चला गया है। 

बनीठनी पनिहारिन 
       ग्वाले का अलगोजा 
               कहीं खो गया है 
                      गांव शहर चला गया है। 
आँगन में मांडना 
       सावन में झूला 
             कहीं खो गया है 
                     गांव शहर चला गया है। 


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )















Saturday, March 13, 2021

सुनहरी यादें

याद आती बचपन की बातें 
प्यार भरी वो सुनहरी  यादें। 

बारिश के पानी में उछलना
मेंढक को देख चीखें लगाना   
कटी पतंगों के पीछे दौड़ना 
दीपक की रौशनी में पढ़ना। 

थैला लेकर स्कूल को जाना 
थूक लगा स्लेट साफ़ करना 
नई किताबों पर गते चढ़ाना
पहाड़े बोल कर याद करना। 

दोस्तों के साथ कंचा खेलना 
फूल पर से तितली पकड़ना
अपने भाई को घोड़ा बनाना 
दादी से  रोज कहानी सुनना। 

होली में सबको रंग लगाना 
सावन में खूब झूले झूलना 
तीज पर मेला देखने जाना 
दिवाली पर पटाखें छोड़ना। 

याद आती बचपन की बातें 
प्यार भरी वो सुनहरी  यादें। 


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Thursday, February 25, 2021

कलात्मक सृजनता


ताल 
कानाताल 
पौड़ी गढ़वाल का 
सुन्दर, शांत इलाका 
छोटा -सा बाजार। 

दो दिन से लगातार 
हो रहा है हिमपात 
लगता है जैसे काश के 
फूलों को बिछा दिया
गया है चहुँ ओर 

पहाड़ों पर छितरे हैं 
दूर-दूर तक मकान 
छतों पर पड़ी हिम 
चमक रही है धूप में 

देवदार के पेड़ 
क्रिसमस ट्री बन गए हैं
झर रही है हिम रुई की तरह 
हवा के हल्के झोंके से 

हिम से ढके पहाड़ 
चमक रहे हैं सूर्योदय 
के समय सोने की तरह 

पर्यटकों का मन मोह रहे हैं 
बर्फीली वादियों के नज़ारे 
चाँदी से गुलज़ार हो गए 
देवभूमि के पर्वत 

प्रकृति ने एक सफ़ेद चादर 
चांदनी की तरह ओढ़ रखी है 
जैसे चाँद अपनी चांदनी 
को छोड़ गया हो 

चारों ओर बिखरा पड़ा है 
प्रकृत्ति का अनुपम सौन्दर्य 
मन को मोह लेती है यहॉं की 
कलात्मक सृजनता। 

( कानाताल में रहते हुए चार फ़रवरी, २०२१ )

( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )

Thursday, February 11, 2021

युग बीत गया

घर की छत पर सोने 
टूटते तारों को देखने 
चांदनी में नहाने को 
मन तरस गया 
एक युग बीत गया। 

झाड़ी से बेरों को तोड़ने 
नीम की छाँव तले बैठने 
अलगोजा सुनने को 
मन तरस गया 
एक युग बीत गया।  

बणीठणी पणिहारी देखने
शादियों में टूंटिया देखने
मेले में घूमने को 
मन तरस गया 
एक युग बीत गया।

गोधूलि में घुंघरु सुनने
मौर का नाच देखने
ऊँट पर चढ़ने को
मन तरस गया 
एक युग बीत गया।  

पायल की छमछम सुनने 
घूँघट से टिचकारी सुनने  
चूड़ियों से पानी पीने को  
मन तरस गया 
एक युग बीत गया।  


Friday, January 15, 2021

दीवार पर टँगा हुआ चित्र

तुमसे बिछुड़ कर 
मैंने पहली बार अनुभव किया है कि 
बिना जान भी जिया जा सकता है
और मैं तनहाई में जिन्दा हूँ। 

मेरे जीवन में 
कोई अस्तित्व का पल नहीं 
जो तुमने छुवा न हो 
कोई सांस नहीं जिसमें 
तुम्हारा अहसास न हो 
कोई याद नहीं जिस पर 
तुम्हारा हस्ताक्षर न हो। 

असीम आनन्द था तुम्हारे सानिध्य में 
जहां भी जाता सदा तुम्हारी 
खुशबू मेरे साथ रहती 
अब मेरा कहने को कुछ नहीं बचा है ?

मेरी यादों का घूँघट भी 
अब धुंधला होता जा रहा है
तुम होती तो क्या होता पता नहीं 
बस खो जाता बाँहों में
निहारता रहता आसमान में चाँद को 

अब तो मैं एक खाली कमरे जैसा हूँ 
या शायद दीवार पर टँगा हुआ चित्र। 




 ( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )


Wednesday, January 13, 2021

तुम्हारी यादों के संग सफर

छुट्टियों के बाद 
मेरा कॉलेज में पढ़ने के लिए जाना 
तुम्हारी आँखों में बादलों का उमड़ना 
आज भी याद आता है। 

मेरे कॉलेज से लौटने पर 
दरवाजे पर आँखों का टकराना 
दिलों में प्यार का उमड़ना 
आज भी याद आता है। 

घर की छत पर 
लम्बे बालों को संवारना 
अप्रतिम सौन्दर्य कोबिखेरना   
आज भी याद आता है।  

हिमालय की वादियों में 
एक हाथ में तुम्हारा हाथ पकड़ना 
दूसरा बादलो के कंधे पर रख घूमना 
आज भी याद आता है। 

गीता भवन के घाट पर 
गंगा की लहरों संग खेलना 
नाव में बैठ पानी को उछालना  
आज भी याद आता है। 

सागर के किनारे 
नंगे पांव लहरों के संग दौड़ना 
ढेर सारी सीपियाँ चुन कर लाना 
आज भी याद आता है। 

पार्क में घूमते हुए 
हलके से उंगलियों को दबाना 
मेरा अल्हड़ आँखों में झांकना 
आज भी याद आता है। 





  ( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )