Friday, April 23, 2021

कुम्भ का मेला

हरिद्वार में 
कुम्भ का मेला  
लाखों की संख्या में साधु -संत 
और नागा सन्यासी 
बहुत बड़ा भक्तों का रेला। 

पंडालों में चारो तरफ 
भजन-कीर्तन चल रहा 
कहीं कम्बल बँट रहा 
तो कहीं भंडारा चल रहा। 

महामण्डलेश्वर आचार्य 
महामण्डलेश्वर महंत और 
अखाड़ों का बड़ा जमघट 
कोरोना महामारी का 
सबसे बड़ा संकट। 

सरकारी गाईड लाइन्स का 
पालन नहीं हो रहा 
हजारों में कोरोना संक्रमण 
फ़ैलता जा रहा। 

भक्तगण निश्चिन्त
कहीं भय का भाव नहीं 
जहाँ ईश्वर साथ है 
वहाँ डर का कोई प्रभाव नहीं। 


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )



 

Wednesday, April 21, 2021

कितना अच्छा लगता है

संध्या के समय 
गीता भवन के घाट पर 
नौका में बैठ कर 
नदी में बहती 
सुनहली-रुपहली 
मछलियों को देखते हुए 
आटे की गोलियाँ डालना
कितनाअच्छा लगता है ? 

गंगा की निर्मल लहरों को 
एक टक देखना 
और देखते-देखते 
स्वयं उनमें खो जाना 
कुछ देर के लिए ही सही 
मगर कितना अच्छा लगता है ?  


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

असमर्थों का मान

अयोध्या में हनुमान ढ़ी
हनुमान जी का प्रशिद्ध मंदिर 
अंदर भक्तों की भीड़ 
आरती और जयकारों से 
गूंजता मंदिर। 

बाहर सीढ़ियों के पास 
भिखारियों की 
लम्बी कतारें 
पंक्तिबद्ध बैठे हैं भिखारी 
सामने तसलों की कतारें। 

भक्तगण 
आते हैं बाहर 
फेंकते है चंद सिक्कें 
गिर जाते हैं 
कटोरों के भीतर-बाहर। 

मन में नहीं है भाव
कि इनको भी दें आदर से 
असमर्थों का मान भी 
बढ़ाया जा सकता है 
हाथ में देकर प्यार से। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Tuesday, April 20, 2021

जब मैं नहीं रहूँगा

जब मैं नहीं रहूँगा 
तब कोई नहीं आयेगा 
मेरा नाम लेकर बुलाने 
कि भागीरथ जी 
है क्या घर मे ? 

जब मैं नहीं रहुँगा 
फिर कोई दोस्त 
नहीं आएगा 
मेरे बारे में पूछने 
कभी इस घर में। 

जब मैं नहीं रहूँगा 
गाँव के लोग पुछेंगे 
कहाँ  रह गये 
हम सब के साथी 
क्या छोड़ आये घर में। 

जब मैं नहीं रहूँगा 
कुछ वर्षों बाद 
आगंतुक पूछेंगे 
किस की लगी है 
यह तस्वीर घर में। 


Wednesday, April 14, 2021

मातृभाषा कराह रही है

आज के बच्चे जो 
पढ़-लिख गए हैं 
अंग्रेजी बोलने में ही 
गर्व का अनुभव करते हैं।   

अपनी मातृभाषा में 
बात करने में अब 
उनकी जबान ऐंठती है। 

ठंडे ज़ायक़े को 
दिमाग में घोलते हुये 
विदेशी भाषा बोलने में ही 
अपनी शान समझते है। 

भूले से भी नहीं दिखती 
उन्हें अपनी जमीन  
जिसकी जड़ों को लगातार 
काट रहे हैं। 

आत्मप्रदर्शन और   
आत्मप्रशंषा के शिकार 
खुदगर्जों के पार्श्व में बैठी 
मातृभाषा आज कराह रही है। 



( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )





Thursday, April 1, 2021

स्मृति मेघ

छा रहे हैं स्मृति मेघ 
       मेरे मन-पटल पर
             भूल पाना है कठिन 
                    एक पल भी भूल कर। 


आज भी खुशियाँ बिखेरे 
        प्रिय ! स्मृति मेघ तुम्हारे 
             खुशियों के फूल खिलाये
                   जीवन की राहों पर मेरे। 

तेरे गीतों की सरगम पर 
     मैंने यह साज उठाया है
              तेरी यादों के साये में 
                   ये स्मृति मेघ रचाया है।  

इन स्मृति मेघ के छन्दों में
      बस याद तुम्हारी बनी रहे
           मेरे मन की सीमाओं पर 
               तेरी ही प्रिये! पहचान रहे।


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