Saturday, February 8, 2020

हम दोनों का प्रेम

तुम्हारे और मेरे बीच
पचास साल से
प्रेम और विश्वास का
सम्बन्ध है। 

तुम बोलते हो तो
मैं उसे सुनती हूँ,
तुम्हारी आवाज की चुप्पी
से भी मैं समझ जाती हूँ। 

कभी-कभी भ्रमवस
पूछ भी लेती हूँ कि
क्या तुमने मुझे कुछ कहा ?
तुम सुन कर हौले से
मुस्करा देते हो। 

तुम्हारा चुप रह कर
मुस्कराना भी मुझे
बहुत कुछ कह जाता है। 

तुम्हारा संवादहीन होना भी
मेरे लिए एक अर्थ रखता है। 

वह है तुम्हारा प्रेम
हमारा प्रेम
हम दोनों का प्रेम।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 

Friday, February 7, 2020

एक प्रयास तो करें

पहले घर छोटे थे
मकान कच्चे थे
कमाई सीमित थी
मगर दिल बड़ा होता था।

एक सब्जी से रोटी
खा लिया करते थे
कभी प्याज और चटनी से भी
काम चला लिया करते थे।

एक भाई कमा कर
चार भाई का घर
चला लिया करता था

सभी मस्त रहते थे
घर में हँसी
और कहकहों की
फुलझड़ियाँ फूटती थी।

डिप्रेशन, उदासी और
ब्लडप्रेशर का
कहीं नाम नहीं था।

जीवन के मूल्य ऊँचे होते थे
ईमानदारी का जीवन था
संतोष में सुख समझते थे।

आज पैसे की कमी नहीं
सुख-साधनों का आभाव नहीं
फिर भी सुख की नींद नहीं।

आज बेटा बाप से नहीं बोलता
भाई से भाई लड़ता
पति से पत्नी तलाक मांगती
तनाव भरा जीवन जी रहे हैं हम।

क्या हम इस दुःख की
नब्ज को पहचान कर
एक सुखी जीवन जीने का
प्रयास नहीं कर सकते ?


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )












Thursday, February 6, 2020

ध्वनि रहित प्रदूषण

हमारे घरों में
आज ध्वनि रहित
प्रदूषण घुस गया है।

आज आदमी
अपने ही घर में
संवादहीन हो गया है।

बेटा अपने रूम में
कम्प्यूटर पर बैठा है
बहु फेस बुक पर
वार्ताएं कर रही है।

पोते-पोतियाँ
मोबाइल पर
अस.एम.अस.
कर रहे हैं।


हर कोई
अपने कमरे में
टी.वी., कम्प्यूटर, लैपटॉप
मोबाईल से उलझा बैठा है।

पुरे घर में एक
गहन चुप्पी छाई हुई है
किसी के पास आपस में
बोलने का समय नहीं है।

भीतर ही भीतर
लोग घुट रहे हैं
टूट रहे हैं इस
संवादहीन प्रदूषण से।

लेकिन क्या कभी
हमने सोचा है
कि ये सब हमारी ही
महत्वकांक्षाओं की उपज है।

बड़े दिखने और
बड़े दिखाने की ख्वाईस
हमें कहाँ ले जा रही है
ज़रा सोचिए, विचार कीजिए।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )





Wednesday, February 5, 2020

पिताजी की पगड़ी

         गाँव के घर में
बरामदे में लगी खूँटी पर
पिताजी टाँगते थे अपनी पगड़ी 

घर से पिताजी
जब भी बाहर निकलते 
सिर पर पहले पहनते पगड़ी 

पिताजी की पगड़ी 
अहसास दिलाती 
गाँव में उनके रुतबे का  

गाँव के छोटे-बड़े 
सभी पिताजी को 
सेठजी कह कर बुलाते 

समय बीतता गया 
पिताजी भी गाँव छोड़ 
शहर में बस गए 

 घर की खूँटी 
सदा-सदा के लिए 
बिन पगड़ी के रह गई

गाँव के घर के 
बरामदे में आज भी 
लगी है पगड़ी वाली खूँटी 

पिताजी की यादें 
जेहन में उतर आती है
जब देखता हूँ पगड़ी वाली  खूँटी। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )




वर्षात और विश्वास

विश्वास उस मयूर को कि
उसके नाचने पर
बरसना होगा बादलों को। 

विश्वास उस चिड़िया को कि
उसके बालू में नहाने पर
आना होगा वर्षात को। 

विश्वास उस सारस को कि
उसके गोलाकार घूमने पर 
आना होगा बारिश को। 

विश्वास उस चातक को कि
उसकी आवाज सुन कर 
आना होगा मानसून को। 

विश्वास उस मेंढक को कि
उसके टर्राने को सुन कर 
गर्जना होगा बादलों को।

विश्वास उस चील को कि
उसके ऊंचा उड़ने पर
बरसना होगा पानी को।

विश्वास उस बिल्ली को कि
उसके भूमि खोदने पर
आना होगा पावस को।

विश्वास उस सीप को कि 
स्वाति नक्षत्र पर 
आना होगा वृष्टि को। 

( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )



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Tuesday, February 4, 2020

सब कुछ सिमट गया

अब माँ दोपहर में
नहीं जाती गपशप करने 
पड़ौस के घर में, 
पड़ोसन चाची भी अब नहीं आती 
माँगने एक कटोरी चीनी 
हमारे घर में। 

अब मेहमान आने पर
पड़ोस के घर से 
दूध भरी बाल्टी नहीं आती, 
माँ भी अब पड़ोस के घर में
जामन माँगने नहीं जाती। 

अब छुटकी, भी
गुड्डे-गुड्डियों की शादी
पड़ोस में नहीं रचाती,
पड़ोसी बच्चे भी अब खेल में
नहीं बनते आकर बराती। 

अब दुःख-सुख की बातें भी 
पड़ोसी के संग नहीं होती,
पड़ोसी के घर की खबर भी 
दूर- दराज से ही मिलती। 

आधुनिकता के दौर में
सब कुछ सिमट गया है, 
मैं और मेरे तक ही
जीवन सीमित रह गया है। 


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )