Tuesday, March 14, 2017

याद आता मुझको मेरा गाँव

बहुत याद आता है,  मुझको मेरा गाँव
कुँवा वाले पीपल की, ठंडी-ठंडी छाँव।

सोने जैसी माटी, वहाँ हरे-भरे खेत
बहुत याद आती है, धोरा वाली रेत।
                     खेत में लगे हुए हैं, खेजड़ी के पेड़
                     हरेहरे पत्तों को, चरती बकरी भेड़।

गायों का घर आना, गोधूलि बेला
रात में खेलना, लुका छिपी खेला।
                  खुला - खुला आसमां, तारों भरी रात
                  चाँद की चांदनी में, करते मीठी बात।

सावन में झूला, फागुन में होली
याद आती है,  जगमग दिवाली।
                          गणगौर मेला, बैलों का दौड़ना
                          आपस में सबका, प्रेम से रहना।

कुऐ का मीठा, अमृत जैसा पानी
अलाव पर बैठ, सुनते थे कहानी
                        शहर की जिंदगी, मुझे नहीं भाती
                         गाँव की यादें, मुझे बेहद सताती।

बहुत याद आता है,  मुझको मेरा गाँव
कुवाँ वाले पीपल की, ठंडी-ठंडी छाँव।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )




Monday, March 6, 2017

तुम्हारा इन्तजार

आज भी दर्पण पर
 लगी बिंदी करती है
तुम्हारा इन्तजार
जहां बैठती तुम सजने-संवरने को 

आज भी पार्क की
[पगडण्डी करती है
तुम्हारा इन्तजार 
जहाँ जाती तुम घूमने को

आज भी छत पर बैठे
पक्षी करते हैं
तुम्हारा इन्तजार 
दाना-पानी चुगने को 

आज भी शाम ढले
तुलसी का बिरवा करता है
तुम्हारा इन्तजार
दीया-बाती जलाने को

आज भी दरवाजे पर 
रंभाती है धोळी गाय
 तुम्हारे हाथों से 
 गुड़-रोटी खाने को




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )