Tuesday, February 26, 2019

फ़िर से बचपन लौटा लाए

छोटी-छोटी बातें ही जब
मन में संशय जगा जाए
आपसी विश्वास टूटे
रिश्ते-नाते मिट जाए।

धन का झूठा लालच जब
मन में स्वार्थ जगा जाए
आत्मीयता के बन्धन सारे
पल भर में बिखर जाए।

धन तो शायद मील जाए
जीवन सुकून चला जाए
कौन आए समझाने फिर
कौन मन का भ्र्म मिटाए।

खुशियाँ निकले जीवन से
भाईचारा बिखर जाए
अकेलेपन का दर्द सताए
तन्हाई जीवन में छाए।

बातों की चबाती चुप्पी
मन में ढेरों संशय जगाए
फिर शब्द सारे मौन हो
हर भावना भी सो जाए

तुम भी वही हम भी वही
आपस में क्यों चुप्पी छाए
आओ मिल कर साथ रहें
फ़िर से बचपन लौटा लाए।




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )





Monday, February 25, 2019

तुम्हारी आहटें आज भी जिन्दा है

कहाँ है वो काली जुल्फें
जिन्हें देख भँवरे भी गुनगुनाते हैं

कहाँ है वो माथे की बिंदियाँ
जिसे देख तारे भी झिलमिलाते हैं

कहाँ है वो शरबती आँखें
जिन्हें देख खंजन भी शर्माते हैं 

कहाँ है वो नरम-नाजुक होंठ
जिन्हें देख गुलाब भी शर्माता है

कहाँ हैं वो रेशमी हथेलियाँ
जिन्हें छू मेंहन्दी भी शुर्ख हो जाती है

कहाँ है वो हसीन पांव
जहाँ बैठ पायल भी छम-छमाती है

मेरे मन की चादर पर 
तुम्हारी आहटें आज भी जिन्दा है। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )



Monday, February 18, 2019

जन्नत में हूर के लिए मर गया

पहला ज्यादा खाने से मर गया
दूसरा बेचारा भूख से मर गया
तीसरा जहरीली शराब पीकर मर गया
चौथा पत्थर तोड़ते-तोड़ते मर गया
पांचवा प्यार में धोखा खाकर मर गया
छठा चल्लू भर पानी में डूब कर मर गया
सातवां मंहगाई की मार से मर गया
आठवां मरने की फुर्सत नहीं थी, इसलिए मर गया
नवां जीने की चाह नहीं रही, इसलिए मर गया
दसवां जन्नत में हूर मिलेगी, इसलिए मर गया।

NO 

Tuesday, February 12, 2019

कहो ना ! बिन तुम .....

कितने बरस बीत गए
कितने सावन निकल गए
रीत रहा है तन-मन
याद आ रहे हैं वो दिन
जब साथ थी तुम।

गांव का घर
माटी पुती दीवारें
गोबर लिपे आँगन
चूल्हे से उठता धुँवा
रोटी की महक और
घूँघट में झांकती तुम।

जाड़ों की रातें
रजाई में जग कर
धीरे-धीरे करते बातें
दूर जा कर लिखते खत
आँखें भिगोती तुम।

खेतों के बीच  छुपते
खेला करते आँख-मिचौली
चुपके से मुझे बुलाने
टिचकारी मारती तुम।

हिमालय की वादियाँ
गीता भवन का घाट
गंगा की ठंडी लहरें
शाम ढले बैठते नौका में
पानी उछालती तुम।

यादों में खोया
किस घर लौटूं !
कहो ना ! बिन तुम  ..... ।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Monday, February 11, 2019

रोबोट

मनुष्य ने किया है
एक नया आविष्कार
एक नया निर्माण
जिसका नाम है रोबोट
यह मनुष्य से बुध्दि या स्फूर्ति में
कहीं भी कम नहीं होगा
एक बटन दबा कर
मनुष्य अपना सारा काम
इससे ही करायेगा

आने वाले दिनों में
स्कूल - कॉलेज जाने की
जरुरत नहीं पड़ेगी
बच्चे घर बैठ पढाई करेंगे
न कक्षायें लगेगी न अध्यापक होगें
परीक्षाएं भी बच्चे घर बैठे
लेपटॉप पर ही दिया करेंगे

मनुष्य की अभिलाषा
कभी पूर्ण नहीं होगी
वो नित नए आविष्कार करता रहेगा
वह आलसी बन सुख ढूंढता रहेगा।


NO



संयमित जीवन

१६ फरवरी, २०२१ 
मैं चौहत्तर वर्ष का हो गया 
मैं अभी स्वस्थ और निरोग हूँ। 

सुबह नियमित एक घंटा
घूमने जाता हूँ
आसन और प्राणायाम भी
नित्य करता हूँ। 

सुबह नास्ते में 
तीन-चार फल लेता हूँ
दोपहर के खाने में 
दो चपाती, दो सब्जी
एक कटोरी दही लेता हूँ। 

शाम को आधा घंटा 
घूम कर आता हूँ 
खाने में उबली हुई  
सब्जी लेता हूँ  
रात में खजूर के साथ
शहद और च्यवनप्राश लेता हूँ।

सुबह साढ़े चार बजे उठना 
रात में दस बजे सोना
मेरी दिनचर्या का भाग है। 

मैं शतायु होना नहीं चाहता 
मागर स्वस्थ और निरोग 
रह कर जीना चाहता हूँ।  


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )









Friday, February 8, 2019

हाथ की सफाई है

अस्पतालों का करोड़ों में,  बजट बनता है
अस्पताल जाओ तो, मिलती नहीं दवाई है।

स्कूल -कॉलेज चलाना, व्यापर बन गया है
  लाखों डोनेशन में लेते, महंगी हुई पढाई है।

देश  का अन्नदाता, आज भी  भूखा रहता है
कौन समझेगा दर्द, जिनके फटे न बिवाई है।

अब तो चुनावों में, बाहुबल-पैसा चलता है
   पैसा खरचो  चुनाव जीतो, यही सच्चाई है। 

कुर्सी मिलते ही, करोड़ों में बटोरने लगते हैं 
क्या करेगा कानून, चोर-चोर मौसेरे भाई हैं। 

भ्रस्टनेता देश को लूट, डकार तक नहीं लेते
  अच्छा मदारी जो कहता, हाथ की सफाई है।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Thursday, February 7, 2019

फिर क्यों अपनापन बांटा ?

बचपन कितना सुन्दर था, ढेरों प्यार जताते थे 
बड़े हुए सब भूल गए, आपस में मन को बांटा।

अहंम का ओजार बना कर,  भाई ने भाई को बांटा
 नहीं किसी ने दर्द को बांटा, केवल सन्नाटे को बांटा।

हाथों से खाना सिखलाया,  बाँहों में झूला  झुलवाया
उसी बाप की नजरों के संग, घर के चूल्हे को बांटा।

आँखें फेरी, लहजा बदला, घर की इज्जत को बांटा 
चौखट भी उदास हो गई, घर के आँगन को बांटा।

प्यार - मुहब्बत भाई जैसा, और कहाँ तुम पावोगे
जन्नत है भाई का रिश्ता, जिसको भी तुमने बांटा।

                                                   कहना सुनना गृहस्थी में, चलता ही तो रहता है                                                       छोटी-छोटी बातों पर, तुमने घर को क्यों बांटा। 

धन-दौलत, जमीं-जायदाद, सभी छोड़ कर जाओगे
साथ नहीं जाएगी कोड़ी, फिर क्यों अपनापन बांटा।




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Wednesday, February 6, 2019

भरोसा नहीं करके

हजारों नियामतों के संग
प्रभु का दिया
सब कुछ है मेरे पास

पैनी दृष्टि सम्पन्न आँखें
ताकतवर हाथ
क्षमतावान पांव
तेज दिमाग
सभी गुणों से भरी
हाथ की लकीरें

सब कुछ करने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
मैं अपने आप को
कमजोर कर लेता हूँ
केवल अपने आप पर
भरोसा नहीं करके।


Monday, February 4, 2019

एक बार लौट आओ

क्या तुम्हें याद है
हम जाते थे प्रति वर्ष
हिमालय की वादियों में घूमने ?

जहाँ होते थे
कास के फूलों से उड़ते बादल
सैलानी हवा से झूमते जंगल

दूध धुले हिमशिखर
नदी की बहती तेज धाराएं
ढलानों पर तराशी खेतियाँ

कितना कुछ जीया था
हम दोनों ने साथ-साथ
घूमते जंगल और पहाड़ों में

हिमालय की वादियाँ तो
आज भी वैसी ही है,
लेकिन आज तुम नहीं हो

मेरा मन तो आज भी
उन फिजाओं में तुम्हारे संग
घूमना चाहता है

उन बहारों में
एक बार फिर से तुम्हें
बाँहों में भरना चाहता है

तुम आओ ना
कोई बहाना बना कर
एक बार लौट आओ।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )