Thursday, December 31, 2020

किसान रो दर्द ( राजस्थानी कविता )

अबके सावण जोरा बरस्यो
भरगी सगळी ताल-तलैया 
हबोळा खावण लाग्या खेत। 

घोटा-पोटा बाजरी अर 
लड़ालूम मोठ-गुंवार देख 
सरजू के गाला पर छागी लाली। 

सोच्यो अबकै साहुकार को 
कर्ज उतर ज्यासी 
झमकुड़ी रा हाथ पीला हुज्यासी 
जे संजोग बैठसी तो गंगा जी 
भी न्हाय आस्या। 

पण हुणी न कुण टाल सकै 
एक रात उमटी काळी कळायण 
बरस्यो सेंजोरा म्है 
पड़्या मोकळा ओला 
करदी एक रात मांय फसल चौपट। 

खुशियाँ सारी हुगी मिटियामेट
घिघियातो सरजू, भूखो-तीसो 
देखतो रियो दिन भर खेत ने
पण नहीं दिख्यो कोई रास्तो। 

भूखे मरण की नौबत आगी 
ऊपर स्यूं साहूकार को डर 
घर में बैठी जुवान बेटी 
सरजू हिम्मत हरग्यो।

दूसरे दिन गांव मांय 
जोरो हेल्लो सुणाई दियो 
सरजू खेत मायं 
खेजड़ी री डाल माथै  
लटक्योड़ौ दिखाई दियो। 


Tuesday, December 22, 2020

नारी की पीड़ा

नारी सदा से भोग्य वस्तु बनी रही 
पाशविकता की शिकार होती रही
क्रूर पंजों में सदा छटपटाती रही  

सदा नुमाईश की वस्तु बनी रही 
हर देश काल में छली जाती रही 
अबला बन अत्याचार सहती रही 

देवता रम्भा, उर्वशी, मेनका, 
तिलोत्तमा के रूप में भोगते रहे 
मगर नारी केवल अप्सरा ही बनी रही 

ऋषि- मुनि घृताची, मेनका, उर्वशी 
कर्णिका, के रूप में भोगते रहे 
मगर नारी सदा सम्मान की पात्रता 
के लिए तरसती ही रही 

राजा-महाराजा उर्वशी, शकुंतला,
माधवी के रूप में भोगते रहे 
मगर नारी सदा गरिमामयी प्रतिष्ठा 
के लिए प्यासी ही रही 

रईश-रसूल वाले गणिका,आम्रपाली,
नगरवधु, मल्लिका के रूप में भोगते रहे 
मगर नारी सदा आदर्श पत्नी बनने 
के लिए तड़पती ही रही

धर्म के नाम पर देवदासी, रुद्रगणिका
रूपाजिवा के रूप में भोगते रहे, 
मगर नारी सदा जीने के भ्र्म में 
बार-बार मरती ही रही।



( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )

    

Wednesday, December 16, 2020

पुराने दोस्तों के साथ

पुराने दोस्तों के साथ 
बिताये लम्हों की एक तस्वीर 
आज फाइलों में दबी मिल गई 

तस्वीर जो समेटे है मेरे 
जीवन के अनमोल पल और 
विशेष यादों को 

कुछ यादें तो आज भी ताजा है 
मगर कुछ धूमिल हो गई 
समय के साथ-साथ 

कुछ दोस्त तो बिछुड़ भी गए 
मगर कुछ अभी भी 
इंतजार में हैं 

कभी कोई मिल जाता है 
जिंदगी के राहे सफर में  
किसी मोड़ पर

तो शुरु हो जाती है 
हँसी-ठिठोली और 
पुरानी यादों की गुगली 

चलती है बातें लम्बी 
नहीं खत्म होती 
यादों की डोर झटपट 

किसने क्या पाया और 
किसने क्या खोया का 
बन जाता है एक तलपट। 


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )







Sunday, December 13, 2020

भोग का चिंतन नहीं छोड़ सके

वेदियां सजाते रहे 
हवन करते रहे 
तिलक लगाते रहे 
भंडारा देते रहे 
मगर अंतस का 
परिवर्तन नहीं कर सके। 

तीर्थों में घूमते रहे 
दर्शन करते रहे 
धर्मग्रन्थ पढ़ते रहे 
प्रसाद लेते रहे  
मगर जीवन से 
राग-द्वेष को नहीं छोड़ सके। 
 
व्याख्यान सुनते रहे 
जयकारा लगते रहे 
माला फेरते रहे 
कीर्तन करते रहे 
मगर अहं का 
अवरोध नहीं हटा सके। 

मंदिरों में जाते रहे 
आरतियां करते रहे 
घंटियां बजाते रहे 
चरणामृत लेते रहे 
मगर भोग का 
चिंतन नहीं छोड़ सके।  



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )







Monday, December 7, 2020

मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है

दिन भर मोबाईल पर बातें करना 
        फेस बुक पर तस्वीरें भेजते रहना 
               वाट्सएप्प पर मैसेज आते रहना  
                     जीवन इसी में सिमटता जा रहा है 
                           मोबाईल व्यसन बनता जा रहा है। 

दिन भर अंगुलियां नचाते रहना 
       नए पोस्ट फॉरवर्ड करते रहना 
               लाइक्स -कमेंटस गिनते रहना 
                     सोशियल साईट्स जकड़ रहा है 
                         मोबाईल व्यसन बनता जा रहा है। 

मोबाईल पर दोस्त बनाते रहना 
        परिवार से सम्बन्ध टूटते रहना 
                मिलना-जुलना कम होते रहना
                      जीवन एकाकी बनता जा रहा है 
                             मोबाईल व्यसन बनता जा रहा है। 

पब्जी, टिक-टोक में खेलते रहना
         चैटिंग में समय नस्ट करते रहना  
                वेब सीरीज का नशा बढ़ते रहना 
                      नोमोफोबिया में जकड़ता जा रहा है 
                             मोबाईल व्यसन बनता जा रहा है। 

रेडिएशन्स का खतरा बढ़ते रहना  
       अनिन्द्रा और गर्दन अकड़ते रहना 
              आँखों के सूखापन का बढ़ते रहना 
                      युवा वर्ग ज्यादा फंसता जा रहा है 
                               मोबाईल व्यसन बनता जा रहा है। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )


Monday, November 2, 2020

केवल सोच बदलने की जरुरत है

किसी को देने के लिए केवल 
धनवान होना जरुरी नहीं है,
तन - मन से किया गया 
दान भी कम श्रेष्ट नहीं है। 

आप किसी बेसहारा का 
सहारा बन सकते हैं, 
किसी निराश व्यक्ति का 
उत्साह बढ़ा सकते हैं। 

आप किसी भूखे को 
भोजन करा सकते हैं,
किसी प्यासे को पानी 
पीला सकते हैं।  

आप किसी अनपढ़ को 
पढ़ने में मदद कर सकते हैं, 
किसी वृद्ध का हाथ पकड़ 
उसे घर तक छोड़ सकते हैं। 

आप पुरानी पुस्तकें, कपडे 
जरुरत मंदों को दे सकते हैं, 
रक्तदान करके किसी का 
जीवन बचा सकते हैं। 

आप किसी बीमार को 
अस्पताल पहुँचा सकते हैं,
किसी आश्रम में अपनी  
सेवा दे सकते हैं। 

आप राह चलते किसी को 
मुस्कराहट दे सकते हैं, 
किसी को आभार प्रकट कर 
खुश कर सकते हैं। 

अपने आस-पास देखिए 
अथाह राहें इन्तजार में हैं, 
आपको केवल अपनी सोच 
बदलने की जरुरत है। 
 


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )




Thursday, October 29, 2020

आओ पेड़ लगाए

देता पेड़ सभी को छाँया 
       जो भी इनके पास आया 
             नहीं भेद है इनके मन में 
                    कोई नहीं इनको पराया। 

झूमझूम कर ये लहराते 
       मानसून के बादल लाते  
              सूरज का ये ताप मिटाते
                     प्राण वायु हमको दे जाते। 

लेकिन आज खड़े ब्यापारी 
       लेकर हाथों में सब आरी 
              शहर गांव में कहीं देखलो 
                      पेड़ों के कटने की तैयारी।  

आओ हम संकल्प करें 
        पर्यायवरण की रक्षा करें 
               पेड़ों को कटने नहीं देंगें 
                      जन-जन में यह बात करें। 

पेड़ों को हम मित्र बनाए 
       नए-नए अब पेड़  लगाए 
              प्रदूषण चिंता का विषय है 
                     पेड़ लगा कर दूर भगाए। 


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )




Friday, October 16, 2020

कुछ यादें और कुछ अहसास

देखते ही देखते
कितना कुछ बदल गया 
एक छोटी सी गुड्डिया 
जो सदा हमारे साथ खेलती थी 
आज सात समुद्र पार चली गई। 

उसके बचपन की ढेरों सौगातें 
बसी है हमारे दिलों में 
आँगन में पैंजन की रुनझुन 
तोतले बोलो की मीठी सरगम 
किलकारियों से घर का गूंजना 
खिलखिला कर हँसना 
अँगुली पकड़ कर चलना 
लगता है जैसे कल की बातें हैं। 

सत्तरह वर्ष की उम्र में 
चली गई अमेरिका पढाई करने 
आज कर रही है वहाँ जॉब 
कुछ वर्षों में हो जाएगी शादी 
चली जाएगी अपने ससुराल 
एक नया संसार बसाने
रह जाएगी सदा- सदा  के लिए 
हमारे संग उसकी कुछ यादें 
और कुछ अहसास। 


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )
 












Tuesday, October 13, 2020

चिन्ता छोड़ो और खुश रहो

चिन्ता छोड़ो और खुश रहो
शान्ति-सदभाव बढ़ाते चलो
दुखियारों के दर्द मिटा कर
सुधा - श्रोत  बहते  चलो। 

चाहे कितना कठिन पथ हो 
हँसते और मुस्कराते चलो  
नफरत की दीवार हटा कर 
सबको  गले  लगाते चलो। 

अधिकारों की अंधी दौड़ में
अपना कर्तब्य निभाते चलो
परोपकार का जीवन जी कर 
खुशियाँ सब में बाँटते चलो। 

सारा जग हो रहा  प्रदूषित 
पर्यायवरण को बचाते चलो
स्वच्छता का हाथ थाम कर 
प्रकृति की रक्षा करते चलो। 

मानवता की जय करने को 
संयम-समता के संग  चलो 
जीवन से आडम्बर हटा कर 
धरा  को  स्वर्ग बनाते चलो। 




( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )




 

Sunday, October 11, 2020

श्रद्धा ही श्राद्ध है

मैंने श्राद्ध पक्ष में 
जिन कौओं को खीर खिलाई 
वो ब्राह्मण थे या नहीं,मुझे नहीं पता 

मैंने श्राद्ध पक्ष में 
जिन्ह गायों को हलवा-पूड़ी खिलाई 
वो ब्राह्मण थी या नहीं, मुझे नहीं पता 

मैंने श्राद्ध पक्ष में 
जिस भूखे को भोजन कराया 
वो ब्राह्मण था या नहीं, मुझे नहीं पता 

लेकिन मैंने  
जो कुछ भी किया 
श्रद्धा और निष्ठा से किया 

और पितरों के प्रति 
श्रद्धा और निष्ठा से किया 
हर कार्य श्राद्ध होता है। 



 ( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )



















Thursday, September 24, 2020

मेहनत

मेहनत उस बूढ़े की 
कड़कड़ाती धूप में सवारी ढ़ोना,
कमाना दो पैसे 
दो जून की रोटी के लिए। 

मेहनत उस औरत की 
घर-घर जाकर बर्तन माँजना,
कमाना दो पैसे 
बेटे को पढ़ने के लिए।  

मेहनत उस मजदुर की 
दिन भर ईंट-गारा ढोना  
कमाना दो पैसे 
परिवार को पालने के लिए 

मेहनत उस बच्चे की 
दिन भर बूट पोलिस करना 
कमाना दो पैसे   
बीमार माँ की दवा के लिए

क्या इस देश का गरीब 
सदा इसी तरह से 
पिसता रहेगा ?

क्या वह जीवन की 
मूलभूत आवश्यकताओं के लिए
सदा ही तरसता रहेगा ?

कब आएगा वह दिन 
जब वो सुख से 
अपनी जिंदगी को जी सकेगा ?




( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )


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Friday, August 28, 2020

जय श्री कृष्ण राधे - राधे

हमारे घर है
एक छोटी सी गुड़िया
नाम है आयशा

वो लगाती है
अपने बालों में
एक सुन्दर सा
हेयर बेंड

रखती है अपने
बालों को खुला
फिर इठलाती है
परियों की तरह

करती है
इन्द्रधनुष के रंगों से
बादलों पर चित्रकारी

नचाती है नैन
कम्प्यूटर स्क्रीन पर
दौड़ाती है उंगलियाँ
किबोर्ड पर

लगाती है प्ले पार्लर
खिलाती है सबको
लौटा लाती है सब का 
प्यार भरा बचपन

सोते समय
सब को कहती है
जय श्री कृष्ण
राधे - राधे।





Tuesday, August 25, 2020

तुम तो आज भी मेरे संग हो

तुम मेरी सुबह की अंगड़ाई हो
तुम मेरी चाय का मिठास हो
तुम मेरी छुट्टी की सुबह हो
तुम मेरे होठों की प्यास हो 
तुम आज भी मेरे संग हो।

तुम मेरी बैचेनी का सुकून हो
तुम मेरे दिल की धड़कन हो
 तुम मेरे प्यार की ग़ज़ल हो 
            तुम मेरे संग में परछाईं हो           
तुम आज भी मेरे संग हो।

तुम मेरे लबों की मुस्कान हो 
तुम मेरे दिल का अरमान हो
 तुम मेरी यादों की हिचकी हो 
तुम मेरे सपनों की रानी हो 
तुम आज भी मेरे संग हो।

तुम मेरे जीवन का संगीत हो 
तुम मेरी कविता का छंद हो 
तुम मेरे दिल की आवाज हो
तुम मेरे प्यार की पनाह हो 
तुम तो आज भी मेरे संग हो।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 

Sunday, August 9, 2020

नौका लगी किनारे पर

नौका लगी किनारे पर
जाने को उस पार 
कुछ तो साथी चले गए
   बाकी का नंबर तैयार। 

दुनियां केवल रैन बसेरा 
वापिस सब को जाना है 
कोई आगे, कोई पीछे 
इसी नाव पर चढ़ना है।  

जीवन में जो कर्म किए 
वही साथ में जायेंगे
बाकि रिश्ते-नाते सारे
यहीं धरे रह जायेंगे।

 दो दिन का यह मेला है 
अंतिम नियति तो जाना है
नौका लगी किनारे पर
अपनी बारी चढ़ना है।

                                                              
                                                                  ( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )




Friday, July 31, 2020

उसका चेहरा देखने लायक था

जीवन में कुछ घटनाएं 
ऐसी भी होती है 
जो सदा याद रहती है 

अमेरिका की सुसाईड हिल
सुशीला झुक कर पहाड़ी की
गहराई को देख रही थी
मैंने पीछे से हल्का धक्का दिया
वो कांप उठी
चहरे पर खौप झलक उठा 
मैंने पीछे से उसे अपनी 
बाँहों में जकड लिया  
उसका चेहरा देखने लायक था।

दार्जिलिंग की पहाड़ी
श्याम-राजू पहाड़ी की ढलान पर
उतरते हुए दौड़ रहे थे
दोनों बच्चों के पांव उखड़ गए
वो रुक नहीं पा रहे थे
सामने गहरी खाई थी
सुशीला भय से कांप उठी 
मैंने दौड़ कर बच्चों को पकड़ा 
उसका चेहरा देखने लायक था।

हम यमुनोत्री से  
दर्शन कर लौट रहे थे 
हनुमान चट्टी पार करके 
आगे बढे तो खबर मिली 
लैंड स्लाइड से आगे का 
रास्ता बंद हो गया है 
गाड़ियों का लम्बा जाम लग गया 
न पीछे जाना संभव न आगे बढ़ना
शाम ढल गई, अन्धेरा छाने लगा
सुशीला घबरा गई 
देर रात थोड़ा रास्ता बना 
हमारी गाड़ी निकलते समय
खाई की तरफ फिसल गई
उसका चेहरा देखने लायक था।




Thursday, July 30, 2020

बुढ़ापे में तुम्हारा सहारा

तुम अपने बेटे-बेटियों को
क्यों भेज देते हो अमेरिका
क्या वहाँ सोने की खान है
जो तुम्हारे देश में नहीं है ?

लाड-प्यार से पाले अपने
जिगर के टुकड़े को भेज देते हो
सात समुद्र पार
पता नहीं फिर वो वहाँ से
कब लौट कर आएगा ?

क्यों भेज देते हो इतनी दूर 
कि सिसकियाँ भी सुनाई नहीं पड़ें 
डबडबाई आँखें भी नहीं देख सको 

खो जायेंगे वहाँ
डालर की चकाचौंध में
बसा लेंगे अपना घर किसी
अमेरिकन या चाइनीज के संग
तुम बुढ़ापे में, देखते ही रहोगे
उनके लौट आने की राह

मत दिखाओ उन्हें ज्यादा सब्जबाग 
जुड़े रहने दो देश की धरती से 
ताकि उन्मुक्त होकर जी सके अपना जीवन 
बन सके बुढ़ापे में तुम्हारा सहारा। 



Wednesday, July 15, 2020

मेरा मन आज उदास हो गया

मेरा मन आज उदास हो गया
बैठे-बैठे तुम्हारे ख्यालों में खो गया।
.
तुम्हारी बदरी सी जुल्फें
तुम्हारा हँसता हुवा चेहरा
तुम्हारे आँचल का मुझे छूना, याद आ गया
मेरा मन तुम्हारी चुहलबाजी की
यादों में खो गया
मेरा मन आज उदास हो गया।
.
मेरा रूठना और तुम्हारा
कनखियों से देख कर हँसना
तुम्हारा अंतर का भोलापन, मुझे याद आ गया
मेरा मन तुम्हारी आँखों के सहज
सलोनापन में खो गया
मेरा मन आज उदास हो गया।
.
तुम्हारे संग हँसी के कहकहे लगाना
थक कर तुम्हारी बाँहों को थामना
तुम्हारा बारिश में भीगना, मुझे याद आ गया
मेरा मन तुम्हारे मृदु हाथों के स्पर्श की
सुखद अनुभूति में खो गया
मेरा मन आज उदास हो गया।
.
गांव के घर में टिचकारी से बुलाना
इशारों में ही सब कुछ समझाना
तुम्हारे मुखड़े का लंबा घूंघट, मुझे याद आ गया
मेरा मन तुम्हारे नर्म अहसासों की
सिहरन में खो गया
मेरा मन आज उदास हो गया।
.
मेरा मन आज उदास हो गया
बैठे-बैठे तुम्हारे ख्यालों में खो गया।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )




Monday, July 6, 2020

पोल्की की अँगूठी

खेत के रास्ते में
पोल्की*तोड़
तुमने एक अंगूठी बना
मुझे पहनाई थी।

वो अंगूठी
आज भी मेरी
अनामिका में हरी है।

तुम्हारे जाने के बाद
मैंने उसे अपने
आंसुओं से सींचा है।

उसकी जड़ें
मेरे दिल तक
चली गई है।

उसकी जड़ों ने
बाँध दिया है
मेरी आत्मा को
जन्म जनमानतार तक
तुम्हारे संग।


*पोल्की एक नरम घास होती है। 

 ( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

दो दिन का बस मेला है


शिव शंभू आओ धरती पर
हे जग के विषपायी
एक वायरस ने दुनियाँ को
कर दिया धराशायी

सभी घरों में कैद हो गए
कैसी यह लाचारी है
कैसा महासंक्रमण आया 
कैसी यह महामारी है

रोज रोज गिरती है लाशें
कौन करे अब गिनती
यमराज से कह कर थक गए
नहीं सुनते वो विनती

एक मास्क में सिमट गई
साँसें सारे जीवन की
नहीं मिली है दवा आज तक
इस व्याधि के उपचार की

थम रहा जीवन पृथ्वी पर
छाई संध्या बेला है
जीवन तो लगता है जैसे
दो दिन का बस मेला है।


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )

Sunday, May 31, 2020

घर से बाहर नहीं निकलना

ना तुमको ऑफिस जाना है
ना मुझ को  जल्दी उठना है
दोनों मिल कर  काम करेंगे
अब  घर में ही तो  रहना है।

तुम उठ करके चाय बनाना
चाय  बना कर मुझे उठाना
मैं जब पुजा - पाठ करूंगी
झाड़ू - पौंछा तुम कर लेना।

नल से तुम  पानी भर लेना
कपड़े  सारे  फिर धो लेना
मैं दोपहर में  जब सोऊंगी
चौका-बर्तन तब कर लेना।

मुझको जूस बना कर देना
तुम  थोड़ा  काढ़ा  पी लेना
कैसे लगता दाल में तड़का
इसकी ट्रेनिंग मुझ से लेना।

संयम से  अब घर में रहना
सभी काम हिलमिल करना
कोरोना का  खतरा बड़ा है
घर से बाहर नहीं निकलना।

( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )




Monday, May 18, 2020

प्रवासी मजदूरों का पलायन

लॉकडाउन के चलते
मजदूर बेघर हो रहा,
कोरोना और बेरोजगारी
दोनों की मार से मर रहा।
सैंकड़ों मील पैदल चल अपने घर लौट रहा, कोरोना त्रासदी का दर्द उसके चेहरे से झलक रहा। घर वापसी का सफर मौत का सफर बन रहा, सड़कों पर जगह-जगह हादसों का शिकार हो रहा। सरकार पर्याप्त मात्रा में गाड़ियां नहीं दे पा रही, पैदल यात्रा करने वालों पर पुलिस लाठियाँ बरसा रही।
देश के निर्माणकर्ताओं की
आज किसी को चिंता नहीं,
सैंकड़ों घर बनाने वालों का
आज अपना कोई घर नहीं।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Monday, May 11, 2020

मेरी कलम भी थर्राई है

कोरोना वायरस
दुनियाँ में कोहराम मचा रहा है, 
विज्ञान वैक्सीन नहीं खोज पा रहा है,
चीन की गलती की सजा संसार भुगत रहा है,
मानवता आज सहम कर, मज़बूरी पर घबराई है।

पुरे विश्व में
महासंक्रमण फ़ैल रहा है,
जैविक युद्ध का खतरा बढ़ रहा है,
चारों तरफ तबाही का मंजर दिख रहा है,
सारी दुनियाँ घरों में बंद, विकट स्थिति आई है।

हर इंसान बेबस
और लाचार हो रहा है,
कोविद -19 तहलका मचा रहा है,
मानव का गुमान धराशाई हो रहा है,
प्रकृति के ऊपर कोई नहीं, यह भी सच्चाई है।

कोविद महामारी ने 
दुनियाँ का चैन छीन लिया है,
हर देश मेंआज कहर बरपा रहा है, 
देश-विदेश में लाशों का अम्बार लग रहा है,
ऐसा भयावह नजारा देख, मेरी कलम भी थर्राई है।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )


Sunday, May 3, 2020

कोरोना वायरस ( महामारी )

कोरोना से बचना है तो
इन बातो का ध्यान करो
फिर न मिलेगा यह जीवन
जीवन से तुम प्यार करो।

रोज करो  तुलसी का सेवन
नीम गिलोय का पान करो
हल्दी,अदरक और संतरे
इन सब का सेवन करो।

हेल्दी भोजन खा कर के
इम्युनिटी को मजबूत करो
जंक फ़ूड को खाना छोड़ो
प्रतिदिन प्राणायाम करो।

धुप-दीप, अगरबत्ती जला
घर से वायरस दूर करो
हाथ जोड़ कर करो नमस्ते
हाथ मिलाना बंद करो।

चेहरों पर तुम मास्क लगाओ
सेनेटाईज़र का प्रयोग करो
साबुन लगा हाथो को धोवो
दो गज दुरी का पालन करो।

डॉक्टर, नर्स और कर्मचारी
इन सब का सम्मान करो
लॉकडाउन के नियमों का
सब मिल कर पालन करो।

कुछ समय की बात है
थोड़ा धैर्य धारण करो
घबरा कर नहीं हिम्मत से
नई सुबह का स्वागत करो।


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )




Friday, May 1, 2020

बताओ क्या करूँ ?

तुम मुझे अकेला छोड़, बिना कहे चली गई
मेरा जीवन वीरान हो गया, बताओ क्या करूँ ?
                                 
                                     रातों में तन्हा बैठा, तुम्हारी बातें याद करता हूँ 
                                     उजड़ गया ख्वाबों का चमन, बताओ क्या करूँ ?
                                      
तुम्हारी बातें, तुम्हारे हंसी, सभी याद आती है
दिल से नहीं निकलती यादें, बताओ क्या करूँ ?

                                               तुम्हारी यादों का झोंका, जकड लेता है मुझे 
नम हो जाती है मेरी आँखें, बताओ क्या करूँ ? 

तुम्हारी यादें जगाती है, तुमसे मिलने की प्यास
कैसे कटेगी मेरी यह जिंदगी, बताओ क्या करूँ ?

                                         अब कैसे बुझाऊँ तुम्हारी, बिछोह की आग को
                                          नहीं लिखा किसी किताब में, बताओ क्या करूँ ?          




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Sunday, April 12, 2020

बेटी की विदाई

दुल्हन का श्रृंगार सजा कर
बेटी आज ससुराल चली
पलकों में भर कर के आंसू,
बेटी माँ से गले मिली

रो-रो कर वह पूछ रही
माँ क्यों मुझको सजा मिली
छोड़ चली क्यों घर का आँगन
बचपन की जहाँ याद बसी

गले लगा माँ ने समझाया
बेटी जग की रीत यही
अपना ख़याल रखना तू बेटी
तेरा घर ससुराल वही

पास जाय पापा से बोली
कैसी घड़ी यह आज आई
पाल पोस कर बड़ा किया
मुझको दिनी आज बिदाई

बड़े प्यार से बोले पापा
बेटी दुनिया ने रीत बनाई
मैंने दिल पर पत्थर रख कर
केवल जग की रीत निभाई

खुशियाँ तेरे संग चलेगी
जिस घर भी तू जाएगी
मेरे घर की रौनक थी तू
आज कहीं खो जाएगी

तेरे बचपन की अठखेलियाँ
सदा मुझे तरसाएगी
आँखों से छलकेंगे आँसूं
जब याद तुम्हारी आएगी।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )


Thursday, March 19, 2020

एक टुकड़ा रोटी

एक टुकड़ा रोटी
आदमी को कितना
मजबूर कर देता है
घर से बाहर निकलने के लिए
चाहे अमीर हो या गरीब
चाहे सर्दी हो या गर्मी
चाहे वर्षात हो या तूफ़ान
श्रम -परिश्रम के लिए
बाहर निकलना ही होगा
कोरोना वायरस जान लेवा है
घर बहुत सुरक्षित है
फिर भी इन्शान मजबूर है
बाहर निलने के लिए
एक टुकड़ा रोटी के हाथों।


ओ मेरी सहृदय !

एक, दो, तीन नहीं
पूरे छः साल हो गए तुम्हें बिछुड़े हुए
उस दिन के बाद आज तक 
नहीं देखा तुम्हारा चेहरा 

लगी है तुम्हारे साथ की
एक तस्वीर कमरे में
   सोचता हूँ कभी 
   हम भी साथ थे

कितना मधुर जीवन था 
दिलो में रहता 
एक दूजे के प्रति प्यार 
और अनुराग 

दो धड़कनों ने 
एक सुर में गीत गया था 
जीवन उस राग की 
मधु लहरियों में खो गया था 

आज मैं अकेला हूँ 
जीवन तो जीना पडेगा 
मगर नयनों में नीर भर 
अब पीर को भी गाना पडेगा 

प्रतिबद्धता की यह कविता 
तुम्हीं को समर्पित है 
ओ मेरी सहृदय ! 





( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )



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Friday, March 13, 2020

सगळा री आस ( राजस्थानी कविता )

आज म्हारी आंख्यां
तरसती रही थारे मुखड़े री
मुळक देखण ताईं 

आज म्हारा होठ
तरसता रिया तनै
दिल रो दरद बताणे ताईं

आज म्हारा कान
तरसता रिया थारा
मीठा बोल सुणणे ताईं

आज म्हारो तन
तरसतो रियो तनै हैत स्यूं
गळे लगाण ताईं

आज म्हारो मन
तरसतो रियो थार सागै
प्यार री दो बातां करणे ताईं

पण थूं तो
गया बाद पाछी
बावड़ी ही कोनी

काश !
थूं ऐकर आ ज्यांवती
तो सगळा री आस
पूरी हो ज्यांवती।





Saturday, March 7, 2020

बड़ा बेशर्म है

एक बार मैं 
साले की शादी में 
सीकर बारात में गया। 

शहर से पत्नी के लिए 
कुछ लेकर जाऊं 
मन में आया। 

घर में किसी को 
पता नहीं लगे 
इसलिए छुपा कर भी 
ले जाना था। 

छोटी आइटम हो 
और पॉकेट में आ जाय 
यह भी ध्यान रखना था। 

मैं दुकानदार से 
जाकर बोला 
भैया एक चोली देना। 

दूकानदार बोला
साईज़ बताइये और 
किस कलर की देना। 

मेरे बगल में ही 
दो लड़कियाँ खड़ी थी 
मैंने इशारे से कहा
इनकी साईज़ दे देना।  

लड़कियाँ मेरी तरफ 
देख कर बोली 
बड़ा बेशर्म है। 

मेरी समझ में 
कुछ नहीं आया 
मैं चोली लेकर 
गांव चला आया। 

बहुत वर्षों बाद 
एक दिन मैंने 
इस बात को अपनी 
पत्नी को बताया। 

वो मेरी नादानी पर 
हँस कर बोली 
और इस रहस्य को 
समझाया। 

तब मेरी समझ में आया 
कि उन लड़कियों ने मुझे 
बेशर्म क्यों बताया। #


# सत्तरह वर्ष की उम्र में ही शादी हो गई थी। पत्नी की उम्र साढ़े तरह वर्ष की थी। गांवों में रहते थे। शादी का क्या अर्थ होता है, वो भी नहीं समझते थे। एक लड़की साथ खेलने घर में आएगी, वो साथ में पढ़ेगी, बस यही शादी का अर्थ था। आज जब भी यह घटना याद आती है, मैं अपने पर हँसने लगता हूँ।     

एक नया अर्थ

सूरज तो आज भी निकला है
फूल आज भी खिलें हैं
हवा आज भी चली है
मगर आज तुम नहीं हो 

यह सूरज की लालिमा
यह फूलों का खिलाना
यह हवा का चलना
मेरे लिए आज एक
नया अर्थ लेकर आया है 

कल की सुबह
और आज की सुबह में
कितना अंतर है
यह मेरा मन समझता है।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 

Saturday, February 8, 2020

हम दोनों का प्रेम

तुम्हारे और मेरे बीच
पचास साल से
प्रेम और विश्वास का
सम्बन्ध है। 

तुम बोलते हो तो
मैं उसे सुनती हूँ,
तुम्हारी आवाज की चुप्पी
से भी मैं समझ जाती हूँ। 

कभी-कभी भ्रमवस
पूछ भी लेती हूँ कि
क्या तुमने मुझे कुछ कहा ?
तुम सुन कर हौले से
मुस्करा देते हो। 

तुम्हारा चुप रह कर
मुस्कराना भी मुझे
बहुत कुछ कह जाता है। 

तुम्हारा संवादहीन होना भी
मेरे लिए एक अर्थ रखता है। 

वह है तुम्हारा प्रेम
हमारा प्रेम
हम दोनों का प्रेम।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 

Friday, February 7, 2020

एक प्रयास तो करें

पहले घर छोटे थे
मकान कच्चे थे
कमाई सीमित थी
मगर दिल बड़ा होता था।

एक सब्जी से रोटी
खा लिया करते थे
कभी प्याज और चटनी से भी
काम चला लिया करते थे।

एक भाई कमा कर
चार भाई का घर
चला लिया करता था

सभी मस्त रहते थे
घर में हँसी
और कहकहों की
फुलझड़ियाँ फूटती थी।

डिप्रेशन, उदासी और
ब्लडप्रेशर का
कहीं नाम नहीं था।

जीवन के मूल्य ऊँचे होते थे
ईमानदारी का जीवन था
संतोष में सुख समझते थे।

आज पैसे की कमी नहीं
सुख-साधनों का आभाव नहीं
फिर भी सुख की नींद नहीं।

आज बेटा बाप से नहीं बोलता
भाई से भाई लड़ता
पति से पत्नी तलाक मांगती
तनाव भरा जीवन जी रहे हैं हम।

क्या हम इस दुःख की
नब्ज को पहचान कर
एक सुखी जीवन जीने का
प्रयास नहीं कर सकते ?


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )












Thursday, February 6, 2020

ध्वनि रहित प्रदूषण

हमारे घरों में
आज ध्वनि रहित
प्रदूषण घुस गया है।

आज आदमी
अपने ही घर में
संवादहीन हो गया है।

बेटा अपने रूम में
कम्प्यूटर पर बैठा है
बहु फेस बुक पर
वार्ताएं कर रही है।

पोते-पोतियाँ
मोबाइल पर
अस.एम.अस.
कर रहे हैं।


हर कोई
अपने कमरे में
टी.वी., कम्प्यूटर, लैपटॉप
मोबाईल से उलझा बैठा है।

पुरे घर में एक
गहन चुप्पी छाई हुई है
किसी के पास आपस में
बोलने का समय नहीं है।

भीतर ही भीतर
लोग घुट रहे हैं
टूट रहे हैं इस
संवादहीन प्रदूषण से।

लेकिन क्या कभी
हमने सोचा है
कि ये सब हमारी ही
महत्वकांक्षाओं की उपज है।

बड़े दिखने और
बड़े दिखाने की ख्वाईस
हमें कहाँ ले जा रही है
ज़रा सोचिए, विचार कीजिए।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )





Wednesday, February 5, 2020

पिताजी की पगड़ी

         गाँव के घर में
बरामदे में लगी खूँटी पर
पिताजी टाँगते थे अपनी पगड़ी 

घर से पिताजी
जब भी बाहर निकलते 
सिर पर पहले पहनते पगड़ी 

पिताजी की पगड़ी 
अहसास दिलाती 
गाँव में उनके रुतबे का  

गाँव के छोटे-बड़े 
सभी पिताजी को 
सेठजी कह कर बुलाते 

समय बीतता गया 
पिताजी भी गाँव छोड़ 
शहर में बस गए 

 घर की खूँटी 
सदा-सदा के लिए 
बिन पगड़ी के रह गई

गाँव के घर के 
बरामदे में आज भी 
लगी है पगड़ी वाली खूँटी 

पिताजी की यादें 
जेहन में उतर आती है
जब देखता हूँ पगड़ी वाली  खूँटी। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )




वर्षात और विश्वास

विश्वास उस मयूर को कि
उसके नाचने पर
बरसना होगा बादलों को। 

विश्वास उस चिड़िया को कि
उसके बालू में नहाने पर
आना होगा वर्षात को। 

विश्वास उस सारस को कि
उसके गोलाकार घूमने पर 
आना होगा बारिश को। 

विश्वास उस चातक को कि
उसकी आवाज सुन कर 
आना होगा मानसून को। 

विश्वास उस मेंढक को कि
उसके टर्राने को सुन कर 
गर्जना होगा बादलों को।

विश्वास उस चील को कि
उसके ऊंचा उड़ने पर
बरसना होगा पानी को।

विश्वास उस बिल्ली को कि
उसके भूमि खोदने पर
आना होगा पावस को।

विश्वास उस सीप को कि 
स्वाति नक्षत्र पर 
आना होगा वृष्टि को। 

( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )



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Tuesday, February 4, 2020

सब कुछ सिमट गया

अब माँ दोपहर में
नहीं जाती गपशप करने 
पड़ौस के घर में, 
पड़ोसन चाची भी अब नहीं आती 
माँगने एक कटोरी चीनी 
हमारे घर में। 

अब मेहमान आने पर
पड़ोस के घर से 
दूध भरी बाल्टी नहीं आती, 
माँ भी अब पड़ोस के घर में
जामन माँगने नहीं जाती। 

अब छुटकी, भी
गुड्डे-गुड्डियों की शादी
पड़ोस में नहीं रचाती,
पड़ोसी बच्चे भी अब खेल में
नहीं बनते आकर बराती। 

अब दुःख-सुख की बातें भी 
पड़ोसी के संग नहीं होती,
पड़ोसी के घर की खबर भी 
दूर- दराज से ही मिलती। 

आधुनिकता के दौर में
सब कुछ सिमट गया है, 
मैं और मेरे तक ही
जीवन सीमित रह गया है। 


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )




Friday, January 31, 2020

इस धरती की रक्षा करना है

हवा -पानी जहरीला हो रहा 
भूगर्भ खजाना खली हो रहा 
धरती का तापमान बढ़ रहा  
विशाल ग्लेशियर पिघल रहा। 

समुद्र धरती को निगल रहा 
मौसम का चक्र बिगड़ रहा 
बाढ़-सूखा चीत्कार कर रहा  
ओजोन कवच अब टूट रहा। 

प्रदूषण दुनियां में फ़ैल रहा 
परमाणु का खतरा बढ़ रहा 
भूकम्प, सुनामी कम्पा रहा 
अकाल मृत्यु दस्तक दे रहा। 

यह महा-प्रलय की आहट है 
सम्पूर्ण जैविकता खतरे में है 
हमें  मिल कर इसे बचाना है 
इस धरती की रक्षा करना है। 


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )


Tuesday, January 7, 2020

बचपन की सौगात

मेरे पोते पोतियाँ अब
बड़े हो गये हैं 
वो कॉलेजो में पढ़ते हैं

अब वो मुझे कहानी सुनाने 
बाहर घुमने ले जाने
कागज़ की नाव बनाने 
की जिद्द नहीं करते 

अब वो मुझे कहते हैं 
चलिए दादा जी आइस्क्रीम 
खाकर आते हैं 

मेरे मना करने पर कहते हैं
ठीक है फिर कल आपके संग 
स्टारबक्स में कॉफी पीकरआते हैं 

बिजी हो कर भी 
वो मेरे लिए समय 
निकाल लेते हैं 

वो मेरा ख्याल रखते हैं 
मेरी जरूरतों को भी 
समझते हैं 

शाम ढले मेरे पास बैठ
मेरी यादों की पिटारी
खोल लेते हैं

बातों ही बातों में
वो मेरे बचपन को
ढूँढ लाते हैं

और मुझे मेरे बचपन की
सौगात एक बार फिर से
देकर चले जाते हैं।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )