खेत बिक रहें है इमारते बन रही हैं यहाँ
अँधी रफ़्तार से भागता जा रहा है शहर।
चकाचौंध भरी जिन्दगी लुभाती है यहाँ
युवाओं को सब्जबाग़ दिखाता है शहर।
इन्शान-इन्शान को नहीं पहचानता यहाँ
स्वार्थ के जाल में फंसा चलता है शहर।
बसों ट्रामों में लटक लोग चलते हैं यहाँ
जिन्दी लाशों को ढोता रहता है शहर।
पड़ोसी-पड़ोसी को नहीं पहचानता यहाँ
बंद दरवाजों के पिछे बसता है शहर।
लाखों की भीड़ में अकेला आदमी यहाँ
नम्बरों के सहारे ही पहचानता है शहर।
बेरोजगारों को भी नौकरी मिलती यहाँ
गाँवों पर यह अहसान करता है शहर।
बसों ट्रामों में लटक लोग चलते हैं यहाँ
ReplyDeleteजिन्दी लाशों को ढोता रहता है शहर।
पड़ोसी-पड़ोसी को नहीं पहचानता यहाँ
बंद दरवाजों के पिछे बसता है शहर।---गहन रचना...।
धन्यवाद आपका।
Deleteस्वागत आपका।
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