Monday, July 15, 2019

कागज की कश्ती

अब नहीं रहा
बच्चों का बचपन
हमारे जमाने जैसा  

अब डेढ़ बरस में
प्लेग्रुप और ढाई में तो
स्कूल चले जाते हैं बच्चे। 

बँट चुका है
उनका बचपन अब
स्कूल और क्रैच में। 

सुबह जाते हैं स्कूल
शाम ढले मम्मी संग
आते हैं क्रैच से। 

दोस्तों की शैतानियाँ 
मेडम की बातें
अपनी हरकतें अब वो 
नहीं कहते मम्मी से। 

अब उनका बचपन
न तो मुस्कराता और
नहीं इठलाता है

खो गई है उनकी
मासूमियत भरी मस्ती
अब पानी में नहीं तैरती
उनकी कागज की कश्ती।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

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