मैं आज कैलाश वाजपेयी जी कि लिखी कविताओं की पुस्तक "मोती, सूखे समुद्र का" पढ़ रहा था। यह पुस्तक 1998 में छपी हुई है। एक कविता में कवि के भाव देखिये --
रामू की भाभी की, कसबे से चिट्ठी आई है ----
लिखा है शहर से समझौता मत कर लेना
अपनी किसी सहपाठिन से हाँ मत भर लेना
अन्यथा अनर्थ हो जायेगा
हम सब का बलिदान व्यर्थ हो जायेगा
कैसे फिर मैं अपने पीहर में मुहँ दिखाउंगी
तुम क्या जानों में जीते जी ही मर जाउंगी।
यह भाभी के मन के भाव है। इसके आधार पर आप माता-पिता के भावों का भी अन्दाज लगा सकते हैं।
आज समय कितना कुछ बदल गया है। क्या आज के बच्चे अपने परिवार या माता-पिता के भावों के बारे में सोचते हैं ? उनके बलिदान के बारे में सोचते हैं ? सब कुछ भाव शून्य हो गया है। आज के बच्चे न खान-पान देखते, न जात -पांत देखते, न रहन-सहन देखते और न आचार-विचार देखते। लड़के देखते हैं सुंदरता और लड़कियां देखती है सेलेरी। माँ-बाप के मन के भावों और बलिदान को अब कोई नहीं पूछता। ?