गांव में था
पहचान थी
सदा नाम से
जाना जाता मैं
गांव से निकला
बह गया धारा में
धारा से नदी
नदी से समद्र
समा गया मैं
अफ़सोस
अब महानगर में हूँ
यहाँ होकर भी
नहीं हूँ मैं
अब नाम से नहीं
मकान नम्बर से
जाना जाता हूँ मैं
वापिस
कैसे जाऊँ वहाँ
जहॉं पैदा हुआ मैं।
महानगरों में मकान न. ही पहचान होती है...
ReplyDeleteवापसी शायद इतनी मुश्किल भी नहीं
अपनी जन्मभूमि अपना इंतजार करती है ।
बहुत सुंदर सृजन।
सुधा जी, बच्चे जो शहरों में जन्में और बड़े हुए, वो क्या अब हमारे साथ जाकर गांवों में रहेंगे ? अब तो गांव सपना ही रह गया है।
Deleteनदी कभी नहीं लौटती! इंसान नदी हो गया आजकल! कोई वापस नही आता!! 🙏
ReplyDeleteबच्चे जो विदेशों में पढ़ने गए, अब तो वो भी वहां के हो गए। किस का इन्तजार करें ?
Deleteबह चला जो दूर बहुत दूर धारा में वह वापस कभी नहीं आता ,,,, शहरी हवा में डूबकर याद बनकर रह जाता है बचपन का गांव। .. बहुत सुन्दर
ReplyDeleteकविता जी गावों की वो गालियाँ, दोस्तों के साथ वो खेलना, खेतों में रमझोल मचाना। सब यादें हैं और यादें ही बन कर रह गई।
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