Saturday, September 13, 2025

बंजारा जीवन

कोलकाता 
बड़ा शहर है, 
सोच कर 
यहाँ बस गया, 
उम्र थी कच्ची। 

अब 
बुढ़ापे में 
समझ आया, 
गांव की 
जमीं थी अच्छी।  

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उम्र हुई, 
बचपन के 
दोस्तों से मिले।

किसे सुनाए 
जीवन के 
शिकवे और गिले। 

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बेर, कैरिया 
तरबूज, काकड़ी 
सब के संग 
गुजरा है बचपन,

मिटटी 
से जुड़ा ही 
समझ सकता है 
इनका रसीलापन। 
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पौधे की भाषा 
केवल मिटटी 
समझती है,

प्रतीक्षा की आहट 
केवल चौखट 
समझती है। 

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मौसम की 
मनमानी पर 
हम जीते हैं, 

सवेरा 
घर भर सुहाना 
और शाम ढले 
छाया से रीते हैं।
 














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