गीता भवन का घाट
कल-कल बहती गंगा
किनारे से बंधी नाव
मैं नाव में बैठा
खो जाता हूँ
तुम्हारी यादों में
न जाने कितनी यादें
बसी हैं हमारी यहाँ
मैं लहरों के संगीत पर
गुनगुनाता हूँ
नदी बसती चली जाती हैं
मेरे होठों पर
तुम्हारी मृदुल छवि का
सुधि-सम्मोहन
भरता चला जाता है
मेरे मन में
और तुम्हारी यादें
बसती चली जाती है
मेरी आत्मा में ---
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