हमारी गृहणियों, जिनके पति सवेरे आफिस चले जाते हैं और शाम को घर पर लौटते हैं, उनको अपने कमरे साफ कराने के लिये महरी चाहिए ? घर मे एक गिलास पानी लाने के लिए नौकर चाहिए। दरअसल हमारे यहाँ काम को सिर्फ बोझ समझा जाता है चाहे वो नौकरी में हो या निजी जिंदगी में हो। जिस देश मे कर्मप्रधान गीता की व्यख्या इतने ब्यापक स्तर पर होती है वहाँ कर्महीनता से समाज सराबोर है। हम काम मे मज़ा नही ढूंढते, सीखने का आनंद नही जानते, कुशलता का फायदा नही उठाते!
वज़न घटाने के लिए सलाद के पत्ते खाना मंज़ूर है। जिम में घण्टो ट्रेड मिल पर हांफना मंज़ूर है, लेकिन घर का काम करना मंजूर नहीं। जो नौकरानियां हमारे घरों को साफ करने आती हैं उनके भी परिवार होते हैं बच्चे होते हैं, ना उनके घरों में कोई खाना बनाने आता है ना ही कोई कपड़े धोने। जब वो इतने घरों का काम करके अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी को निभा लेती हैं तो हम अपने परिवार का पालन पोषण करने में क्यों थक जाते हैं?
हम अपने घर को मेहरी से साफ कराते हैं।
खाना कुक से बनवाते हैं।
झूठे बर्तन नौकर से धुलवाते हैं।
कपडे दया से धुलवाते हैं।
कपड़े धोबी से प्रेस करवाते हैं।
बाथरूम स्वीपर से साफ़ कराते हैं।
सब्जी, दूध वाला घर लाकर देता है।
बच्चे आया से पलवाते हैँ।
बच्चों को ट्यूटर से पढ़ाते है।
गाड़ी ड्राइवर से धुलवाते हैं।
बगीचा माली से लगवाते हैं।
तो फिर सोचिये हम अपने घर के लिये क्या करते हैं?
कितने शर्म की बात है एक दिन अगर महरी छुट्टी कर जाये तो कोहराम मच जाता है, फ़ोन करके अडोस पड़ोस में पूछा जाता है। जिस दिन खाना बनाने वाली ना आये तो होटल में आर्डर होता है या फिर मेग्गी बनता है। घरेलू नौकर अगर साल में एक बार छुट्टी मांगता है तो भी हमे बुखार चढ़ जाता है। होली दिवाली व त्योहारों पर भी हम नौकर को छुट्टी देने से कतराते हैं।
जो महिलाएं नौकरीपेशा हैं उनका नौकर रखना वाज़िब बनता है किंतु जो महिलाएँ सिर्फ घर में रहकर अपना समय TV देखने या FB और whats app करने में बिताती हैं, उन्हें भी हर काम के लिए नौकर चाहिये ? सिर्फ इसलिए क्योंकि वो पैसा देकर काम करा सकती हैं ? लेकिन बदले में कितनी बीमारियों को दावत देती हैं यह शायद वो नही जानती। आज 35 वर्ष से ऊपर की महिलाओं को ब्लड प्रेशर ,मधुमेह, घुटनों के दर्द, कोलेस्ट्रॉल, थायरॉइड जैसी बीमारियां घेर लेती हैं जिसकी वजह सिर्फ और सिर्फ लाइफस्टाइल है।
यदि 2 घण्टे घर की सफाई की जाये तो 320 कैलोरी खर्च होती है। 45 मिनट बगीचे में काम करने से 170 कैलोरी खर्च होती हैंन। एक गाड़ी की सफाई करने में 67 कैलोरी खर्च होती है। खिड़की दरवाजो को पोंछने से कंधे,हाथ, पीठ व पेट की मांसपेशियां मजबूत होती हैं। आटा गूंधने से हाथों में आर्थ्राइटिस नही आता। कपड़े निचोड़ने से कलाई व हाथ की मानपेशियाँ मजबूत होती हैं। 20 मिनट तक रोटियां बेलने से फ्रोजन शोल्डर होने की संभावना कम हो जाती है। ज़मीन पर बैठकर काम करने से घुटने जल्दी खराब नही होते।
लेकिन हम इन सबकी ज़िम्मेदारी नौकर पर छोड़कर खुद डॉक्टरों से दोस्ती कर लेते हैँ। फिर शुरू होती है खाने मे परहेज़, टहलना, जिम, या फिर सर्जरी। कितना आसान है इन सबसे पीछा छुड़ाना यदि हम अपने घर के काम को खुद करें और स्वस्थ रहे। पश्चिमी देशों में अमीर से अमीर लोग भी अपना सारा काम खुद करते हैं और इसमें उन्हें कोई शर्म नही लगती। लेकिन हम मर जायेंगे पर काम नही करेंगे।
किसी भी तरह की निर्भरता कष्ट का कारण होती है फिर वो चाहे शारीरिक हो, भौतिक हो या मानसिक हो। अपने काम दूसरों से करवा करवा कर हम स्वयं को मानसिक व शारीरिक रूप से पंगु बना लेते हैं और नौकर ना होने के स्थिति में अपने आप को असहाय महसूस करते हैं। ये एक दुखद स्थिति है।
यदि हम काम को बोझ ना समझ कर,उसका आंनद ले तो वो बोझ नही बल्कि एक दिलचस्प एक्टिविटी लगेगा।जिम से ज्यादा बोरिंग कोई जगह नही, उसी की जगह जब आप अपने घर को रगड़ कर साफ करते हैं तो शरीर से "एंडोर्फिन हारमोन" निकलता है जो आपको अपनी मेहनत का फल देखकर खुशी की अनुभूति देता है।
अच्छा खाना बनाकर दूसरों को खिलाने से "सेरोटॉनिन हार्मोन" निकलता है जो तनाव को दूर करता है। जब काम करने के इतने फायदे हैं तो फिर ये मौके क्यों छोड़े जाय। ज़रा सोचिये अपना काम स्वयं करके हम ना सिर्फ अपने स्वास्थ्य को बनाये रखते हैं बल्कि पैसे भी बचाते हैं और दूसरे की निर्भरता से भी बचते हैं।
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