Wednesday, June 15, 2022

चार मुक्तक

मेरे गांव की चहल -पहल गुमसुम बैठी है, 
पनघट के पांवों की पायल उदास बैठी है,
गांवों में स्वार्थ  का एक ऐसा दौर चला है, 
भाई से भाई की  बोली रूठ कर बैठी है। 

पूर्णिमा की उस रात चाँद अमृत रसा था, 
चांदी सी किरणों संग सोना भी बरसा था, 
तारों भरी रात स्वागत करने को आई थी, 
सूरज भी उसे देखने सारी रात तरसा था। 

नेता की गाड़ी को हर कोई राह देता है,
धरती की क्या बात, अम्बर राह देता है,
बुरा-भला कुछ भी करे,सौ खून माफ़ है,                                                                                    
जरुरत पड़े तो,सागर भी गवाही देता है। 

खुले आम घूम रहें, सडकों पर व्यभिचारी,
नहीं धरा, नहीं गर्भ में, सुरक्षित अब नारी, 
आँखें बंद कानून की, क्या करे अब नारी,
युग - युगांतर से सदा, लुटती रही है नारी।









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