Tuesday, April 22, 2025

समय का बदलाव

मैं आज कैलाश वाजपेयी जी कि लिखी कविताओं की पुस्तक "मोती, सूखे समुद्र का" पढ़ रहा था।  यह पुस्तक 1998 में छपी हुई है। एक कविता में कवि के भाव देखिये -- 

रामू की भाभी की, कसबे से चिट्ठी आई है ----

लिखा है शहर से समझौता मत कर लेना 
अपनी किसी सहपाठिन से हाँ मत भर लेना 
अन्यथा अनर्थ हो जायेगा  
हम सब का बलिदान व्यर्थ हो जायेगा 
कैसे फिर मैं अपने पीहर में मुहँ दिखाउंगी 
तुम क्या जानों में जीते जी ही मर जाउंगी। 

यह भाभी के मन के भाव है। इसके आधार पर आप माता-पिता के भावों का भी अन्दाज लगा सकते हैं। 

आज समय कितना कुछ बदल गया है। क्या आज के बच्चे अपने परिवार या माता-पिता के भावों के बारे में सोचते हैं ? उनके बलिदान के बारे में सोचते हैं ? सब कुछ भाव शून्य हो गया है। आज के बच्चे  न खान-पान देखते, न जात -पांत देखते, न रहन-सहन देखते और न आचार-विचार देखते।  लड़के देखते हैं सुंदरता और लड़कियां देखती है सेलेरी। माँ-बाप के मन के भावों और बलिदान को अब कोई नहीं पूछता। ?


 


Friday, April 18, 2025

एक पिता का दर्द

बचपन में मैने 
पिताजी के सामने 
खड़े हो कर 
कभी बात नहीं की । 

कुछ कहना होता 
तो माँ के आँचल के पीछे 
खड़े हो कर कह देता। 

बड़े होने पर भी 
यही हाल रहा
सिर झुका कर 
बात सुन लेता  
जो कुछ कहते 
बस हाँ भर लेता। 
 
पिताजी से 
आँख मिला कर 
बात करने की तो 
कभी हिम्मत भी नहीं हुई। 

लेकिन आज जब मैं 
पिता की भूमिका में आया 
तो देखता हूँ कि सब कुछ 
बदल गया है। 

जिस पिता ने 
पुरी ईमारत का 
बोझ उठा कर रखा  
आज वह नीवं में दबा 
पत्थर मात्र रह गया है। 

अपने जीवन में जो 
पूरी दुनियां से लड़ा
और सदा जीता 
आज वह अपने बेटों के सामने 
बुजदिल बन कर रह गया है। 

अपने बेटों द्वारा 
किये गए अपमान से 
आज उसकी आँखें 
नम हो गई है। 

आज उसकी 
उम्मीदों का मौसम 
पतझड़ में बदल गया है 
सारे सुनहरे ख्वाब 
मुंगेरी के सपने बन 
ढह गये हैं।

अपने आप को 
रोने से रोक रहा है 
मगर उसके जबड़े 
कसते चले जा रहे हैं।

मान लिया सब पिता 
एक जैसे नहीं होते 
मगर 
सभी पिता अंततः 
पिता तो होते ही हैं। 

उनका का भी 
एक सम्मान होता है 
एक अस्तित्व होता है 
एक स्वाभिमान होता है। 





Monday, April 14, 2025

चांदनी रात में

चांदनी रात में 
जब कोई तारा आकाश से 
टूट कर निचे आता है 
तो मुझे लगता है 
निकला है कोई आँसू 
तुम्हारी आँख से 

लेकिन वह 
नहीं पहुंचता 
मेरे पास 
खो जाता है कहीं  
क्षितिज में 
और मैं इन्तजार 
करते-करते 
चला जाता हूँ 
निंद्रा के आगोश में। 

जीवन चक्र

माटी से बना दीपक
रात भर जलता है 
रौशनी देता है 
अँधियारा हरता है 
सबको राह दिखाता है 
और एक दिन टूट कर  
माटी में मिल जाता है। 

देह दीपक की 
यही कहानी है
बचपन, जवानी और 
बुढ़ापे की 
तेज धारा में बहता 
आखिर टूट कर 
एक दिन माटी में 
मिल जाता है।  



Saturday, April 12, 2025

अब आकर बदरा बरसो रे

धरती प्यासी, जीवन प्यासा, 
ताल, तलैया सब ही प्यासा। 

                      सारे पंछी रो-रो कर पुकारे,
                      अब आकर बदरा बरसो रे। 

प्यासा पपीहा पिहू पिहू बोले, 
चातक प्यासा मुँह को खोले। 

                    धरती  की प्यास बुझादो रे, 
                    अब आकर बदरा बरसो रे।

खेतों -आँगन में तुम बरसो, 
धरती लहराए उतना बरसो। 

                      झर-झर की झड़ी लगादो रे,
                      अब आकर बदरा बरसो रे।

स्वागत करेंगे  नर और नारी,
महकादो तुम फसल हमारी। 

                  आकाश में मृदंग बजादो रे 
                  अब आकर बदरा बरसो रे।


Saturday, March 29, 2025

रति के आँचल में बसंत मचलने लगा

वसंतोत्सव पर यौवन बहकने लगा  
तन हर्षित मन  पुलकित होने लगा 
मलय  पवन धरा पर इठलाने लगी    
शहदिली रातों का दीप जलने लगा। 

मौसम का मिजाज भी बदलने लगा 
जंगल में गुलमोहर भी दहकने लगा
तन दहकने और सांसे महकने लगी 
प्रेयसी पर मिलन उन्माद छाने लगा। 

बन-बाग़न में अमुआ भी बौराने लगा 
फूलों की गंध से चमन महकने लगा 
प्रिया को प्रियतम की याद आने लगी 
अंग-अंग अगन से अनंग जलने लगा। 

बागो में भंवरा कलियों से मिलने लगा 
चिरैया के नाच पर चिरौटा झूमने लगा 
बागो में कोयल कुहू- कुहू बोलने लगी 
रति के आँचल में बसंत मचलने लगा। 








Saturday, March 8, 2025

शब्दों का प्रयोग

शब्दों से मत गिराओ पत्थर 
शब्दों से मत चलाओ नस्तर 
शब्दों से मत चुभाओ खंजर
शब्दों से मत निकालो जहर । 

शब्दों में भरो प्यार का गुंजन 
शब्दों में लाओ मृदु मुस्कान 
शब्दों से बहाओ सुख सुमन 
शब्दों से करदो दुःख समन। 

शब्दों से गावों गीत उजास 
शब्दों में लावो प्रीत हुलास 
शब्दों से झरे सदा मधुमास
शब्दों में बहे सदा परिहास।  

शब्द लगे सदा ही रसमय 
शब्द बने सदा ही सुखमय
शब्द निकले सदा मधुमय
शब्द झरे सदा ही प्रेममय। 




Sunday, March 2, 2025

आस्था का केंद्र कुम्भ

महाकुम्भ के पावन पर्व को पहचानो 
त्रिवेणी  में नहाना  है ह्रदय  में ठानो 
मिलता सैकड़ों वर्षों में ऐसा अवसर  
कुम्भ को जीवन का सुअवसर जानो। 

कुम्भ के महात्म्य को समझना सीखो 
आगम - निरागम को समझना सीखो 
मिलता है नसीबों से  सुहाना अवसर 
संतो के दर्शनों का लाभ लेना सीखो।  

कुम्भ  हमारी संस्कृति की पहचान है 
यह गंगा,यमुना,सरस्वती का संगम है 
यह करोड़ों जनों केआस्था का केंद्र है 
कुम्भ भारत को ईश्वर का वरदान है। 

कुम्भ में स्नान करने जो भक्त जाते हैं  
एक डुबकी में सारे पाप कट जाते हैं 
शृद्धा भक्ति से पूजन करने वाले सदा
संतों के आशीर्वाद को प्राप्त करते हैं।



Monday, February 3, 2025

अपने सोने के महल बनवाते रहें हैं

रोशनी अभी उन घरों तक नहीं पहुंची 
जो जिंदगी भर अंधेरों से लड़ते रहें हैं। 

कौन सच्चा और कौन झूठा कैसे जाने 
चहरे तो सभी नकाबों से ठकते रहें हैं। 

उन पेड़ों की सुरक्षा अभी भी नहीं हुई 
जो सदा राहगीरों को छांव देते रहें हैं। 

मिट्टी के पक्के घड़े खन्न-खन्न बोलते हैं 
वो सदा तप - तप कर निकलते रहें हैं। 

चुनाव में आश्वासनों की रेवड़ी बाँटते हैं 
चुनावों के बाद सदा मुँह फेरते रहें हैं। 

समृद्धि आज भी उनके घर नहीं पहुंची 
जो खेतों में अन्न उगा सबको देते रहें हैं। 

झोपड़ों के भाग्य पर जो आँसू बहाते हैं 
वो अपने सोने के महल बनवाते रहें हैं। 




Monday, January 13, 2025

अब भी गांव के खेतो में अलगोजा तो बजता होगा

पत्थर वाली पाटी पर हम बारहखड़ियाँ लिखते थे 
छुट्टी की बेला में सब खड़े होकर पहाड़े बोलते थे 
सारे साथी बिछुड़ गये मिलना अब मुश्किल होगा 
अब भी गांव के खेतो में अलगोजा तो बजता होगा। 

मेरे सपने में आकर गांव आज भी मुझे बुलाता है 
सारी सारी रात गांव की गलियों में मुझे घूमाता है 
गांव का कोई साथी मुझको भी याद करता होगा 
अब भी गांव के खेतो में अलगोजा तो बजता होगा। 

होली पर चंग  की धाप आज भी खूब लगती होगी 
सावन की तीज पर गोरियाँ घूमर भी घालती होगी 
झूमझूम बादल गांव में आज भी खूब बरसता होगा 
अब भी गांव के खेतो में अलगोजा तो बजता होगा। 

गुवाड़  में चिलम  की बैठक आज भी जमती होगी 
गौधूली बेला मंदिर में झालर आज भी बजती होगी
गांव का खेत आज भी चौमासा में तो लहराता होगा 
अब भी गांव के खेतो में अलगोजा तो बजता होगा। 

कर श्रृंगार गगरी ले पनिहारी पनघट तो जाती होगी 
खेतों में मौर नाचते कोयलिया तो गीत सुनाती होगी 
सावन महीने में गड़रिया मेघ मल्हार तो गाता होगा 
अब भी गांव के खेतो में अलगोजा तो बजता होगा। 



Friday, January 3, 2025

नई राह पर चली लाडली।

बड़ी  लाडली  नटखट थी 
गोदी  में  खेला करती  थी
उस गोदी को सुनी करके 
नई राह पर चली लाडली। 

रुनझुन वाला आँगन छोड़ा 
पूजा  राणा नाम  भी छोड़ा 
अपना जीवनसाथी चुन कर 
नई राह पर चली लाडली।  

मन में खुशियों को भर कर 
श्वांसों में मधुर मिलन लेकर
आशाओं के दीप जला कर
नई  राह पर चली लाडली। 

सपनों का एक नीड़ सजाने 
प्यार भरा एक जीवन जीने 
खुशियों का  संसार  बसाने 
नई  राह पर चली लाडली।