Sunday, November 22, 2009

सियाळो ( राजस्थानी कविता )



सियाळा में सी पङै जी ढोला         
                 सूरज निकल्यो बादल में 
पीळा पड़ग्या खेत भंवरजी        
                         सरसों फूली खेतां में 

डूंगर ऊपर मोर ठिठरग्या             
                    पालो जमग्यो हांडी में    
  छोरा-छोरी सिंया मरग्या               
                    सोपो पड्ग्यो सिंझ्या में    

  चिड़ी-कमेड़ी ठांठर मरती           
                 जाकर घुसगी आळा में
   बुड्ढा-बडेरा थर-थर कांपे         
                 जाकर बङग्या गुदडा में

अमुवा री डाली पर बैठी            
                        कोयल बोली बागा में  
बेगा आवो बालम म्हारा             
                      गौरी उडीके महलां में।


कोलकत्ता
२१ नवम्बर, २००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Monday, November 16, 2009

माँ और नारी



माँ,
आँखों में क्षमा
मन में वात्सल्य
हाथ देने हेतु उठा हुवा

नारी
आँखों में आलोचना
मन में कामना
हाथ लेने हेतु फैला हुआ

माँ
समर्पित-सात्विक जीवन
अल्पसंतोषी
इश्वर की सीधी-सादी रचना 

नारी
समर्पण की चाहत
संतुष्टी का अभाव
इश्वर की जटिल रचना

माँ
असमर्थ, पराजित, दुर्बल
पुत्र को भी बढ़ कर
आँचल में बैठाती है 

नारी
असमर्थ, पराजित
 दुर्बल पुरूष को
बांहों में नहीं भारती है। 



कोलकत्ता
१५ नवम्बर, २००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Saturday, November 7, 2009

गर्मी की रातें



गाँव में
गर्मियों के दिनों में
छत पर पानी डाल कर
ठंडा कर दिया करते थे 


शाम का
धुंधलका होते ही
छत पर चले जाते थे 

बिस्तर पर
लेटे-लेटे खुले आसमान में
 चाँद में चरखा कातती बुढ़िया को
देखा करते थे 

चाँद के सरासर
सामने सप्तऋषियों को बाँधने
और तारों को फँसाने का
गुमान करते थे 

रात में तारों की बरात
और टूटते तारों का नजारा
देखना अच्छा लगता था

ये सब 
करते-करते
कब नींद आ जाती
पता भी नही लगता था  

अब रात को
आसमान की जगह
केवल कमरे की छत
दिखाई देती है

लेटे-लेटे
गाँव की सुनहरी
 यादों में खो जाता हूँ
अब भी सपने में गांव की
   छत दिखाई देती है।  


कोलकत्ता     
७ नवम्बर, 2009

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )