Monday, October 30, 2017

पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै (राजस्थानी)

पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै
म्हारी तो मृगानैणी बसै अमरापुर रै।

कोई सामण आवै सावण रै
झूला झूलती देतो हिलौर रै
पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै
म्हारी तो मृगानैणी बसै अमरापुर रै।

कोई सामण आवै तीज रै
मेंहदी मांड दिखाती हाथ रै
पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै
म्हारी तो मृगानैणी बसै अमरापुर रै।

कोई सामण आवै होली रो त्योंहार रै
रंग तो लगातो करतो रमझोळ  रै
पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै
म्हारी तो मृगानैणी बसै अमरापुर रै।

कोई सामण आवै गणगौर रै
कर सोलह सिणगार पुजती गौर रै
पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै
म्हारी तो मृगानैणी बसै अमरापुर रै।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]


Wednesday, October 18, 2017

साथी मेरा चला गया था

एक कलख है मन में मेरे
        अंत समय में पास नहीं था
                 मीलों लम्बा सफर किया पर
                         तुम से बातें कर न सका था।

देख तुम्हारी नश्वर देह को
        लिपट-लिपट कर मैं रोया था
                जीवन भर तक त्रास रहेगी
                      यम से तुमको छिन न सका था।

आँखों में अश्रु जल भर कर
        मरघट तक मैं साथ गया था
                 पंच तत्व में विलिन हुई तुम
                          मैं खाली हाथ लौट पड़ा था। 

सारी खुशियाँ मिट गई मेरी
         सुख का जीवन रित गया था
                 जीवन का अनमोल खजाना
                          मेरे हाथों से निकल गया था।





  ( यह कविता "कुछ अनकही ***"में छप गई है। )



Monday, October 16, 2017

कश्मीर कल और आज

कल तक 

पहाड़ों पर दमकती बर्फ
चिनार पर चमकती शबनम
खेतों में महकती केशर
धरती का जन्नत था कश्मीर।

डलझील में तैरते शिकारे
वादियों में महकते गुलाब
फिजाओं में घुलती मुहब्बत
धरती का जन्नत था कश्मीर।

शिकारों में घूमते शैलानी
घाटी में फूलते ट्यूलिप
झीलों पर तैरते बाज़ार
धरती का जन्नत था कश्मीर।

और आज 

माँ ओ की ओढ़नी छिन  गई
बेटियों की अस्मिता लूट गई
मांगो का सिंदूर उजड़ गया
जन्नत नरक में बदल गया।

केसर क्यारी कुम्लाह गई
हिमगिरि में आग लग गई
जिहाद में युवा बहक गया
जन्नत नरक में बदल गया।

सभी आकांक्षायें कुचल गई
होठों की हंसी दुबक गई
घाटी में आतंक फ़ैल गया
जन्नत नरक में बदल गया।



















Thursday, October 5, 2017

तुम कहाँ हो ?

दामिनि दमकी, बरखा बरसी
काली घटा छाई, तुम कहाँ हो ?

मानसून गया, विजय पर्व आया
रावण भी दहा, तुम कहाँ हो ?

करवा चौथ, मेहन्दी लगे हाथ
निकला चाँद, तुम कहाँ हों ?

ज्योति पर्व आया, दीप जले
खुशहाली छाई, तुम कहाँ हो ?

सर्द मौसम, सुलगता अलाव
थरथराती देह, तुम कहाँ हो ?

बसंत बहार, होली का त्योंहार
रंगों की बौछार, तुम कहाँ हो ?

गीतों की रमझोल, झूले पड़े
आई गणगौर, तुम कहाँ हो ?



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]


Tuesday, October 3, 2017

यादों के झुण्ड

फुर्सत के समय
आ घेरती है तुम्हारी यादें
तस्वीर से निकल खुशबु बन
फ़ैल जाती है इर्द-गिर्द

बचपन की मुलाकातें
ख्वाबों में डूबी रातें
रूठना और मनाना
बेपनाह बातें

एक के बाद एक
उमड़ पड़ते हैं
यादों के झुण्ड

कभी सोचा भी न था
एक दिन ऐसा भी आएगा
जब अकेले बैठ तन्हाई में
तुम्हारी यादों को जीवूंगा

लेकिन अब
इन यादों के सहारे ही
तय करना होगा
जीवन का अगला सफर

बड़ा मुश्किल होता है
तसल्ली देना अपने आप को
और तन्हाई में पौंछना
खुद के आँसू।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]