Tuesday, October 3, 2017

यादों के झुण्ड

फुर्सत के समय
आ घेरती है तुम्हारी यादें
तस्वीर से निकल खुशबु बन
फ़ैल जाती है इर्द-गिर्द

बचपन की मुलाकातें
ख्वाबों में डूबी रातें
रूठना और मनाना
बेपनाह बातें

एक के बाद एक
उमड़ पड़ते हैं
यादों के झुण्ड

कभी सोचा भी न था
एक दिन ऐसा भी आएगा
जब अकेले बैठ तन्हाई में
तुम्हारी यादों को जीवूंगा

लेकिन अब
इन यादों के सहारे ही
तय करना होगा
जीवन का अगला सफर

बड़ा मुश्किल होता है
तसल्ली देना अपने आप को
और तन्हाई में पौंछना
खुद के आँसू।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

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