Thursday, August 31, 2017

पक्षी भी उड़ान भरने से डरते हैं

मेरी आँख से अब
आँसूं नहीं निकलते
और नहीं दीखता है अब
मेरा उदास चेहरा

इसका अर्थ यह नहीं
कि मेरा विछोह का दर्द
अब कम हो गया है

असल में मैंने अपने
दर्द को ढक लिया है
इसलिए अब वह
अंदर ही अंदर तपता है

रिसता रहता है
देर रात तक आँखों से
गायब हो जाती है
रात की नींद भी आँखों से

कभी लिखूँगा वो सारी बातें
अपनी कविताओं में
जो मैंने सम्भाल रखी है
अपनी धड़कनों में

मेरी जिन्दगी तो अब
रेगिस्तान के उस टीले पर
खड़ी हो गई है जहां
पक्षी भी उड़ान भरने से डरते हैं।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]








Wednesday, August 30, 2017

आतंकवाद और जन्नत

हम दुनियाँ में आतंक फैला देंगे,
हम दुनियाँ में कोहराम मचा देंगे,
बस अल्लाह की मेहरबानी हो जाएँ,
                                    हमें तो बस जन्नत में
                                    बहत्तर हूरें मिल जाएँ। 

हम दुनियाँ में अत्याचार बढ़ा देंगे,
हम दुनियाँ में हाहाकार मचा देंगे,
बस अल्लाह की रहनुमाई हो जाएँ,
                                       हमें तो बस जन्नत में
                                       बहत्तर हूरें मिल जाएँ। 

हम निर्दोषों को गोलियों से भून देंगे,
हम मासूमों का कत्ले-आम कर देंगे,
बस अल्लाह की इनायत हो जाएँ,
                                    हमें तो बस जन्नत में    
                                    बहत्तर हूरें मिल जाएँ। 

हम दुनियाँ में कहर बरपा देंगे,
हम दुनियाँ से अमन मिटा देंगे, 
बस अल्लाह की रहमत हो जाएँ,
                                   हमें तो बस जन्नत में
                                   बहत्तर हूरें मिल जाएँ। 

( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Monday, August 28, 2017

मेरे अन्तर्मन में

तुम चली गई
इस धराधाम से
पर आज भी बैठी हो
मेरे अन्तर्मन में
जैसे रह जाती है
पहली वर्षा के बाद
मिट्टी में सौंधी महक
जैसे ढ़लता सूरज
छोड़ जाता है
झीने बादलों पर लाली
वैसे ही आज भी
तुम्हारी आँखों मस्ती
तुम्हारी प्यारी हँसी
तुम्हारा समर्पण -भाव
तुम्हारा शील-स्वाभाव
सब कुछ बसा है
मेरे अन्तर्मन में
जो बह कर आ रहा है
मेरी कविताओं में
मेरे भावों में
मेरी बातों में।




[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

Saturday, August 26, 2017

हे प्रकृति माँ !

हे धरती !
तुम मुझे दो गज जमीं दो
कि मैं एक छोटा सा
घर बना सकूँ 

हे आकाश !
तुम मुझे छोटी सी बदली दो
कि मैं सिर छुपाने एक
छत डाल सकूँ 

हे  पवन !
तुम मुझे थोड़ी शुद्ध हवा दो
कि मैं अपनी सांसों को
सुकून दे सकूँ 
हे नदी !
तुम मुझे थोड़ा निर्मल जल दो
कि मैं स्वस्थ और निरोग
जीवन जी सकूँ 

हे इंद्रधनुष !
तुम मुझे थोड़े रंग दो 
कि मैं अपने जीवन में 
खुशियों के रंग भर सकूँ 

हे प्रकृति माँ !
मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि 
मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा 
जिससे मैं सुकून भरा
जीवन जी सकूँ। 



Thursday, August 10, 2017

चरवाहें

                                                                             मैंने देखा है
चरवाहों को खेजड़ी की
छाँव तले अलगोजों पर
मूमल गाते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को दूध के साथ
कमर में बंधी रोटी को
खाते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को भेड़ के 
बच्चे को गोद में लेकर
चलते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को शाम ढले
टिचकारी से ऐवड़ को 
हाँकते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को खेतों में
मस्त एवं स्वच्छंद जीवन
जीते हुए।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Friday, August 4, 2017

दो कविता

मन समझता है

एक सुबह
उस दिन हुयी थी
जब तुम मेरे साथ थी

और एक सुबह
आज हुयी है जब
तुम मेरे साथ नहीं हो

मेरा मन समझता है
दोनों में कितना
अन्तर है।


 तुम जो साथ नहीं हो

जब तक तुम मेरे साथ थी
मुझे नदी, नाले
पहाड़, उमड़ते बादल
हरे-भरे खेत और
खलिहान
सभी बहुत अच्छे लगते थे

अच्छे तो वो आज भी है 
लेकिन अब अकेले में
मुझे यह सब
अच्छे नहीं लगते।