Saturday, September 24, 2011

साँस की कीमत

माँ ने रोज 
की तरह सूर्यास्त से
पहले ही खाना खा लिया

सुबह के लिए
स्नान घर में पानी की बाल्टी
अपने पहने के कपड़े भी रख लिए 

कबूतरों को सवेरे
दाना डालने वाला कटोरा
भी भर कर कमरे मे रख लिया

गीता और माला
हमेशा की तरह
सिरहाने रखना नहीं भूली

प्रातः बेला में
जब उठी तो कहने लगी
थोड़ा जी घबरा रहा है 

हम कुछ समझ पाते
इतने में ही मृत्यु ने बाज की तरह
झपटा मारा और
 ले उड़ी माँ की साँसों को 

एक क्षण पहले तक 
जो माँ जीवित थी
दूसरे ही क्षण शव बन चुकी थी 

नहीं जगा पाया
माँ को मेरा विलाप
बहुओ और पोतो का आर्तनाद 

वे  हमारी
आवाज की दुनियां से 
अब बहुत दूर जा चुकी थी

मैंने अपने जीवन में
आज पहली बार
एक साँस की कीमत को
पहचाना था। 

कोलकत्ता
२४ सितम्बर, २०११

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )




Monday, September 19, 2011

मामूली कविता

मैंने आज एक
मामूली कविता लिखने
की सोची

मामूली कविता
लिखने का एक अलग ही
अंदाज  होता है

मामूली कविता
किसी पर भी लिखी जा सकती है
यह डायरी का लिखना होता है

अपने एक सहपाठी पर भी
जिसके घर से आये नाश्ते के लड़डू
हम निकाल कर खा जाते थे@

अपने छपे पुराने लेख
और कविताओ के संग्रह पर भी 
जो माँ  ने दे दिए थे#

फिल्म गंगा जमना  पर भी
जिसको भूगोल का पाठ समझ कर
देखने चले गए थे$

मामूली कविता लिखने वाला
निश्चिंत होकर लिखता है
मामूली कविता को कोई नहीं चुराता है

और अंत में चार लाइने
जहाँ से इस कविता को
लिखने की प्रेरणा मिली

लारलप्पा, बटाटा बड़ा,
इलू-इलू, इना-मिना-डिका
जैसे गानों को सुन सुन कर। 


     ============================
@ :--मालचंद करवा नवलगढ़ कोलेज हॉस्टल में मेरा रूम पार्टनर था। वह रात को रजाई ओढ़ कर लड्डू खाया करता था। सुबह जब वह  स्नानं करने जाता ,  हम अलमारी खोल कर उसके लड्डू खा लिया करते थे। जब वह देखता कि  लड्डू गिनती में कम हो रहे है, तो वह हमसे पूछता, हम कह देते रात में  रजाई में तुमने कितने  लड्डू खाए कोई गिनती है क्या ? वो निरुतर हो जाता। 

#:-- कोलेज में पढ़ते समय मैं  कुछ लेख और कहानिया लिखा करता था, जो समय - समय पर पत्र - पत्रिकाओं में छपती रहती थी। मै उनको घर ले जा कर रख दिया करता था। एक दिन गाँव से आयदानाराम की माँ आई और कहने लगी सेठानी जी थोड़े कागज़  देदो, दो- चार ठाटे बनालू। माँ ने मेरी सारी पत्र - पत्रिकाए उठा कर उसको दे दी।

$ :--मै उस समय कक्षा नौ में पढ़ता था।  भूगोल में एक पाठ था - गंगा जमुना का मैदानी भाग। मै अपने गाँव बल्दू से सुजानगढ़ एक विवाह में शामिल होने आया था। तांगे पर एक आदमी माइक ले कर फिल्म गंगा जमुना  के बारे में प्रचार कर रहा था। मैंने सोचा, जरुर इस फिल्म में गंगा जमुना के मैदानी इलाको के बारे में दिखाया गया  होगा। मै पिताजी से पूछ कर फिल्म देखने चला गया। उसके बाद क्या देखा, वो तो आप भी  समझते होंगे।



कोलकत्ता
१९ सितम्बर,२०११

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है। )

कुछ तुम भी करो

मैंने तुम्हे
अंधे की लाठी पकड़ कर
 सड़क पार कराते हुए
देखा है।

मैंने  तुम्हे
 घायल पड़े व्यक्ति को
  अस्पताल पहुंचाते हुए
देखा है।

मैंने तुम्हे 
वृद्धाश्रम में जन्मदिन 
 की खुशियाँ बाँटते हुए
देखा है।

मैंने तुम्हे
 असहाय व्यक्तियों की
 सहायता करते हुए
देखा है।

मैंने तुम्हे
प्यासे राहगीर को
पानी पिलाते हुए
   देखा है।

मैंने तुम्हे
रोते हुए बच्चे को
गोद में लेकर हंसाते हुए
देखा
तुम्हारे जैसा
इन्सान जब दुनिया से जायेगा
लोग अश्रुपूर्ण नेत्रों से बिदा करेंगे।

१८ सितम्बर, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Friday, September 16, 2011

पहाडो की गोद में

मै  जब  भी
ऋषिकेश जाता हूँ
 हिमालय मुझे मौन निमंत्रण
देने लगता है

मै चला जाता हूँ
हिमालय के विस्तृत
आँगन मे जँहा हैं कई सौन्दर्य पीठ

देवप्रयाग
रुद्रप्रयाग -सोनप्रयाग
चोपता, तुंगनाथ और जोसीमठ 

जंहा चारों  ओर
 होते हैं ऊँचे ऊँचे पहाड़
हरे- भरे खेत और सुन्दर वादियाँ 

चहकते रंग- बिरंगे पक्षी
कल-कल करती गंगा - यमुना
जंगली फूल और हँसती हरियाली

 बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य
बहते नाले और  नाद करते झरनें  
 शिखरों पर पड़ी अकलुषित हिमराशी

खिली-खिली चाँदनी रातें
गुदगुदी सी मीठी सुनहली धूप
प्राणों को स्निग्ध करदेने वाली स्वच्छ हवा

पहाड़ों में बरसती
   उस शुभ्र कान्ति को देख   
मौन भी सचमुच मधु हो जाता है

मैंने गंग -यमुना के गीत सुने है
गोधूली बेला में उसके मटमैले धरातल को
सुनहला और नारंगी होते देखा है

सात बार बद्री
और तीन बार केदार के
 मंगलमय  दर्शन का सुख पा चुका हूँ 

दो बार
गंगोत्री और  यमुनोत्री की
 चढ़ाई का आनन्द भी ले चुका हूँ 

कलकत्ते  की
 व्यस्तता के बीच
 जब भी  समय पाता हूँ
हिमालय की वादियों में चला जाता हूँ

बनजारा मन
होते हुए भी आँगन का पंछी हूँ
 कुछ दिन हिमालय के आँचल में फुदक
वापिस घर लौटआता हूँ। 
  

कोलकत्ता
१६ सितम्बर, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

अन्तर्यामी प्रभु

 आसमान के
द्वार पर आगंतुको का
रजिस्टर देखते हुए
 उदघोषक ने मेरा नाम पुकारा

मैं जैसे ही
  बैकुंठाधिपति के सामने खड़ा हुवा
चित्रगुप्त मुझसे पूछने लगे

 मैंने कहा प्रभु !
मुझसे क्यों पूछते हो
कर्ता-धर्ता तो सबके आप हो 

मैं तो निमित मात्र हूँ 
कर्णधार और सूत्रधार
तो आप ही हो 
  
आपने ही तो मुझे इस
महानाट्य का
 पात्र बनाया था

लीला तो प्रभु
चारों तरफ आप ही की
चल रही थी

मैं तो
आपके हाथ का
एक उपकरण मात्र था

आपने जो करवाया
वह मैंने किया
    जो बुलवाया वही बोला

   मैंने तो
    नहीं बनाई वासनायें
    नहीं रची कामनायें

यह सब कुछ
है आपका ही दिया
मैंने तो कुछ नहीं किया 
              
मुझे तो इस
नाटक के आदि-अन्त
का भी पता नहीं था

 आप ने ही तो
 गीता में कहा था  
निमित्तमात्र भवः  

  मैंने वही किया
केवल निमित्त मात्र बना
 आपका निर्देशित आचरण प्रभु

अब मुझे
       क्यों इस कठघरे में       
  खड़ा करके पूछ रहें हैं प्रभु ?
    
  यत्कृतं  यत् करिष्यामि तत् सर्वं  न मया कृतम्
त्वया कृतं तु  फलभुक् त्वमेव रघुनंदन।

कोलकत्ता
१६ सितम्बर, २०११



(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Wednesday, September 7, 2011

टाबरपण रा सुख ( राजस्थानि कविता )

थारा प्रेम रा 
चार आखर लिख्योड़ा 
कागज़ ओज्यूं माळिया
री संदूक मांय पड्या है 

जद कद
माळिया में जाऊँ
थारी प्रीत री निशाणी
ने होठां स्यूं लगान आऊँ 

थारो दियोड़ो
गुलाब रो फूल ओज्यूं    
पोथी रे पाना बीच
रख्योड़ो पड्यो है

पोथी खोलतां ही
ओज्यूं थारी प्रीत री  
खुशबू बिखेरै है 

थारी भेज्योड़ी
रेशमी रूमाल ओज्यूं 
म्हारै कपड़ा बीच पड़ी है 

हाथ मायं लेता हीं 
मधरी-मधरी महक
मन में छा ज्यावे है

टाबरपण रा
संज्योड़ा सुख आज म्हानै
घणो सुख देवै है।



कोलकत्ता
७ सितम्बर,२०११

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Monday, September 5, 2011

मौसम बदलता है,

हर बार
जा कर वापिस
 लौट आने वाला मौसम
अच्छा लगता है

सर्दियों की गुनगुनी धूप
बसंत में कोयल की कूक
सावन की रिमझिम
मन को भाती है

याद आ जाती है
 पिछली बातें उस मौसम की
 जब वह लौट कर आता है

मौसम का
बदल कर लौट आना
  कुछ ऐसे ही लगता है
जैसे उसका पीहर जाकर
लौट आना। 

कोलकत्ता
५ सितम्बर, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Friday, September 2, 2011

अन्ना का आन्दोलन



सुना आपने
देश भर में अन्ना का
आन्दोलन

रामलील मैदान में
अनशन
देश की जनता का
सहयोग

युवा वर्ग का विशेष
समर्थन
चारो तरफ रैलियां
और अनशन

भस्म  हो  जाएगा इस
अनशन और आन्दोलन की 
आग में भ्रष्टाचार

पीले पड़ने लगेंगे
खून पिए हुए  
सुर्ख चेहरे 

जन लोकपाल बिल
पास होते ही
ध्यान में लाये जायेंगे
नेताओं के पिछले कारनामें

शर्म से तब
गड़ जायेंगे भ्रस्टाचारी
देश को मिलेगी
उस दिन
असली आजादी। 


कोलकात्ता
२  सितम्बर, २०११


(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

हरा पत्ता

जब पीला पत्ता
डाल से गिरता है
हरा पत्ता थोड़ा
कांप उठता है

लेकिन
थोड़ी देर बाद  
शान्त हो जाता है 

बसंतआते ही
हरा पत्ता फिर
लहलहा ने लगता है 

वो नहीं जानता
मरने के बाद
आत्माओं के सफ़र
के बारे में। 


कोलकता 
२ सितम्बर, २०११

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )