आसमान के
द्वार पर आगंतुको का
रजिस्टर देखते हुए
उदघोषक ने मेरा नाम पुकारा
मैं जैसे ही
बैकुंठाधिपति के सामने खड़ा हुवा
चित्रगुप्त मुझसे पूछने लगे
मैंने कहा प्रभु !
मुझसे क्यों पूछते हो
कर्ता-धर्ता तो सबके आप हो
द्वार पर आगंतुको का
रजिस्टर देखते हुए
उदघोषक ने मेरा नाम पुकारा
मैं जैसे ही
बैकुंठाधिपति के सामने खड़ा हुवा
चित्रगुप्त मुझसे पूछने लगे
मैंने कहा प्रभु !
मुझसे क्यों पूछते हो
कर्ता-धर्ता तो सबके आप हो
मैं तो निमित मात्र हूँ
कर्णधार और सूत्रधार
तो आप ही हो
तो आप ही हो
आपने ही तो मुझे इस
महानाट्य का
पात्र बनाया था
महानाट्य का
पात्र बनाया था
लीला तो प्रभु
चारों तरफ आप ही की
चल रही थी
मैं तो
आपके हाथ का
एक उपकरण मात्र था
चारों तरफ आप ही की
चल रही थी
मैं तो
आपके हाथ का
एक उपकरण मात्र था
आपने जो करवाया
वह मैंने किया
जो बुलवाया वही बोला
मैंने तो
नहीं बनाई वासनायें
नहीं रची कामनायें
यह सब कुछ
है आपका ही दिया
मैंने तो कुछ नहीं किया
वह मैंने किया
जो बुलवाया वही बोला
मैंने तो
नहीं बनाई वासनायें
नहीं रची कामनायें
यह सब कुछ
है आपका ही दिया
मैंने तो कुछ नहीं किया
मुझे तो इस
नाटक के आदि-अन्त
का भी पता नहीं था
नाटक के आदि-अन्त
का भी पता नहीं था
आप ने ही तो
गीता में कहा था
गीता में कहा था
निमित्तमात्र भवः
मैंने वही किया
केवल निमित्त मात्र बना
आपका निर्देशित आचरण प्रभु
अब मुझे
अब मुझे
क्यों इस कठघरे में
खड़ा करके पूछ रहें हैं प्रभु ?
खड़ा करके पूछ रहें हैं प्रभु ?
यत्कृतं यत् करिष्यामि तत् सर्वं न मया कृतम्
त्वया कृतं तु फलभुक् त्वमेव रघुनंदन।
त्वया कृतं तु फलभुक् त्वमेव रघुनंदन।
कोलकत्ता
१६ सितम्बर, २०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
१६ सितम्बर, २०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
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