Thursday, January 31, 2013

हिमपात

युवा साइड वाक् पर
शीत ऋतु की स्वास्थ्यप्रद वायु का
सेवन करते हुए दौड़ रहे हैं 

बच्चे बर्फ के गोले बना
एक दुसरे पर फैंक रहे हैं 
फिसल रहे हैं, स्नोमैन बना रहे हैं 

चाँदनी रात में बर्फ
चाँदी की तरह चमक रही है
सड़क दूध का दरिया बन गया है 

पेड़ो और पत्तों पर
लगता है कोई चित्रकार 
सफ़ेद रंग करते-करते सो गया है

ठण्ड से ठिठुरता
सूरज कहीं डर कर छुप गया है
अब तो यदा-कदा ही मुहँ दिखा रहा है

-23 डिग्री सेल्सियस तापमान
और हिम शीतल बयार से बेखबर
जन-जीवन  सामान्य गति से चल रहा है। 



  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Saturday, January 26, 2013

कवि तुम लिखो

    भूख  से दम तोड़ रहे भुखे                                                                                                                         
गरीब  बच्चों के बारे में लिखो

                           दहेज़ के लालच में जलाई
                    जा रही दुल्हन के बारे में लिखो

देश की सीमा पर शहीद जवान के
बिलखते परिवार के बारे में लिखो

                    देश में हर रोज हो रहे घोटालों
                  और भ्रस्टाचार के बारे में लिखो

  झुग्गियों और फुटपाथों पर
सड़ रही जिंदगियों पर लिखो

                      औरतों पर हो रहे जुल्म और
                         बलात्कार के ऊपर लिखो   

        बेटे के इन्तजार में आँखे
   बिछाए बाप के बारे में लिखो

                       किसी तलाकशुदा नारी की
                      काली रातों के बारे में लिखो

    माँ की बुझी हुयी आशाओं
टूटे हुए दिल के बारे में लिखो

                      बिना इलाज के मरते किसी
                    गरीब के दर्द के बारे में लिखो

    कवि  कुछ ऐसा लिखो कि
मानव की मानवता जाग उठे

                   चौराहे पर खड़ा मूक दर्शक भी
                      अन्याय का प्रतिकार कर उठे।



  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Thursday, January 24, 2013

समै रो जथारथ (राजस्थानी कविता )

घर सूं कागद आवंतो जणा
सात समाचार लिख्योडा आवंता
बदलाव समैरो
लोग कागद लिखणो ही भुलग्या
,ई'मेल स्यूं आधा आखर लिख''र  ही
काम काढबा लागग्या

तीज त्योंहार आयां घर-आंगणा मांय 
हिरमिच-गेरू का मांडणा मांडता
चालगी आन्थुणी पून 
अब प्लास्टिक का स्टीकर लगा''र ही
 काम काढबा लागग्या

ब्याव-सावै पीला चावल देंवता 
मान-मनवार स्यूं बूलावंता 
अब तो प्रीत-प्रेमरी बात ही कोनी
 सीधा मोबाइल पर मेसेज भेज''र ही
काम काढबा लागग्या

मरणै-खरणे री खबर सुण्या
सगळ गाँव का लोग भेळा हुंवता
समै रो जथारथ
अब तो लोग मुंडो दिखा"र ही
 काम काढबा लागग्या

मिलता जणा जै रामजीकी कैंवता
 दुःख-सुख की दो बात पूछता
अब तो नुवीं हवा रा लैरका सरणाट बेवै
लोग-बाग़  हाय-हल्लो कर ही 
काम काढ़बा लागग्या

उन्याला में गाँवतरा स्यूं कोई आंवतो जणा
 भर बाटको छाछ -राबडी घालता
 पी"र कालजो तिरपत हुज्यातो
अब तो एक कप चाय पकड़ा"र ही
  काम काढ़बा लागग्या

होली दयाळी  एक दूजा रे घरा जांवता
जणा बडोड़ा ने पांवाधोक देंवता
टाबरियाँ न लाड़ करता
अबै नै की आणी नै की जाणी
सगला लैपटॉप मांय ही सिमटण  लागग्या।




[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]

Tuesday, January 22, 2013

पूजा राणा




केवल नाम ही नहीं है
 तुम्हारा पूजा
जग में कोई भी नहीं है
तुम जैसा दूजा

तुम चमको जहाँ में
इस तरह कि 
 तुम्हारा नाम पूजा जाए 
हर जगह

तुम खिलो पूनम के
सपनों की तरह
खुशबुओं में नहाओ
फूलों की तरह

कल्पना चावला बन
आसमान में ऊड़ो
झाँसी की रानी बन
हुंकार भरो

मदर टेरेसा बन
समाज सेवा करो
दुर्गा बन इतिहास में
नाम अमर करो

फैले तुम्हारा यश
नील गगन सा
 कीर्ति का विस्तार हो 
ब्रह्मांड सा।



[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]



मतलब सूं स्यांणा (राजस्थानी कविता )


जका को कदैइ
की नी देखोड़ो हुवै
अर जे थोड़ो-घणो
बापर ज्यावै

बो खुद ने
फैर अणुतो ही
हुंस्यार समझण
लाग ज्यावै

जै कदास कोई बात
पूछ बैठे जणासं सोचै
म्हारे में काइंठा
कतीक ऊरमा  है

आनी सोचै
गरज पड्या लोग
गधा ने भी
बाप बणावै है

सागला
आप-आपरे
मतलब सूं
स्यांणा हुवै है।




[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]

खानाबदोश औरत




खानाबदोश औरत
अपनी मांसल देह के साथ
बिना थके नापती रहती है
पुरे प्रदेश को

लम्बे-चौड़े डग भरती
चलती चली जाती है
परिवार के साथ
एक से दुसरे गाँव को

बिना सर्दी-गर्मी की
परवाह किये कहीं भी  
डाल लेती है डेरा
सिर छुपाने को

चक्कर लगाती रहती है
ट्रको और बसों का
झोली में रखे सामान
बेंचने को

ड्राइवर होठों पर
कुटिल मुस्कान लिए
घूरते है उसके माँसल
बदन को

समेटती खुद को
उन भेदती निगाहों से जो
छील देती जिस्म के
अंतस को

सांझ ढले वह
माँ, बहन, पत्नी होती है
लेकिन वो घर नहीं होता
डेरा होता है

अपने घर का सपना
उसकी आँखों में ही रह जाता है
और अक्सर यह सपना
आसुंओं में ढल कर बह जाता है। 



  [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]


Tuesday, January 15, 2013

गाँव का कुआ





गाँव के कुए में
जब तक पानी रहा
पुरे गाँव के घरों में
मूणं, मटका, घड़ा भरा रहा

पनिहारिने सज-धज कर
पानी लाने जाती रही
पायली झंकार से गाँव की
गलियाँ जंवा होती रही

लेकिन जब से नल आया
गाँव की रौनक चली गयी
पनघट के पीछे गाँव की
गलियाँ भी सुनी हो गयी

अब तो पानी भी नलो में
बूंद बूंद कर के आता है
गाँव वालो के दिलो में
अगन सी लगाता है

मचा हुआ है गाँवो में
पानी के लिए हाहांकार
न जाने कब आएगी गाँवों मे
फिर से पानी की बहार।



  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]



Wednesday, January 9, 2013

चौथ का चाँद


पत्नियाँ आज चौथ का
व्रत रखेगी

आकाश में आज
चौथ का चाँद निकलेगा,
जमीन का चाँद
आसमान के चाँद को देखेगा।

पतियों के लिए
मंगल कामना करेगी,
चाँद को देख कर
व्रत का समापन करेगी।

चाँद निकलने में 
ज्यादा ही देर कर रहा है,
वो सजने-सँवरने
में ही लग रहा है।

उसे पता है धरती पर 
उसका इन्तजार हो रहा है,
इसीलिए आज वो कुछ 
ज्यादा ही अकड़ रहा है।

लेकिन आज उसकी
सारी अकड़ निकल जायेगी,
जब देखेगा मेरे चाँद को
दांतों तले अंगुली दब जायेगी।


14 अक्टूम्बर ,2011
पिट्टस बर्ग (अमेरिका)





Monday, January 7, 2013

केट-वाक




हँसती, मुस्कराती, इठलाती
ख़ुशी से थिरक रही है
लडकिया केटवाक् करती।

रंग-बिरंगी पोशाके पहने
कर रही है फैशन सौ
चाल में जादू दिखाती।

मंद, तेज चाल चलती
होठों पर मुस्कान लिए
अपनी प्रतिभा को दिखती।

लाडली
तुम्हारे जीवन की
घड़िया बीते ठण्डी
छाँव में।

दुःख का कोई कांटा
कभी भी नहीं लगे
तुम्हारे पाँव में।

जीवन की डगर पर
इसी तरह केट-वाक
करती रहो।

सपनों को साकार
करती  आगे तुम
बढ़ती रहो।



नोट ;- मेरी पोती राधिका ने 25 दिसम्बर 2012 को मणिकरण, कोलकता में अपनी सहेलियों के साथ स्टेज पर केट-वाक किया था, जिसे बहुत पसंद किया गया। मुझे भी उसने अपना वीडियो भेजा था।
उसने मुझे कहा की यदि आपको मेरा प्रयाश अच्छा लगे तो मुझे कविता लिख कर आशीर्वाद देना।


असीम स्नेह व शुभकामनाओं के साथ
दादा- दादी

पीट्सबर्ग (अमेरिका)
7 जनवरी, 2013




Friday, January 4, 2013

मुझे नया जीवन दिया




साँसे लगी जब साथ छोड़ने
         विस्वास हुवा मेरा धूमिल
                  जीने का अरमान जगा कर
                         आत्म बल से पूर्ण किया
                                मुझे नया जीवन दिया।


डूब रही थी जीवन नैया
          टूट रही थी जीवन डौर
                होंसलों का थमा दामन
                        मेरे जीवन को बचा लिया
                                 मुझे नया जीवन दिया।


रंग उड़ गए सब सतरंगी
          तार-तार हर साँस हो गयी
                   आस्था का देकर सम्बल
                          मेरे संसय को दूर किया
                                 मुझे नया जीवन दिया।



देख रही मै साँसों की गति
        जो थी अब साथ छोड़ रही
                 बुझते दीपक सी लगी झपकने
                         आपने मुझे आश्वस्त किया
                                 मुझे नया जीवन दिया।


टूटती हुयी मद्धम साँसों में
         हर सांस थरथराई पारे सी
               रहबर बन कर आये आप
                        लगा लंग्ज उपकार किया 
                                मुझे नया जीवन दिया। 



यह कविता डॉक्टर के प्रति आभार स्वरूप लिखी गई है, जिसने यह महान कार्य किया।  

  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]