Tuesday, November 27, 2018

बुढ़ापा और बूढ़ा हो गया

सोने के मृग के पीछे
दौड़ते-दौड़ते जवानी बीत गई
बुढ़ापा आ गया
जब आँखों से दिखना मन्द हुआ
कानों से सुनना कम हुआ
दांतों का गिरना शुरू हुआ
साँसों का फूलना शुरू हुआ
तब जाकर समझ आया
कि यह सब तो छलावा था।

तब तक एक लम्बी उम्र बीत गई
जीवन की शाम ढल गई
बुढ़ापा और बूढ़ा हो गया
अब मैं नहीं दौड़ता सोने के मृग पीछे
अब मैं अपनी जड़ों की तरफ देखता हूँ 
जो अब खोखली होती जा रही है
न जाने किस आइला-अम्फान में
जीवन की जड़े उखड़ जाएं।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Wednesday, November 21, 2018

काश कोई लौट आए अपना

गाँव के नौजवान
जो गाँव के गौरव थे
शहर चले गए
वो चलाते हैं वहाँ रिक्शा
खींचते हैं गाड़ियाँ
करतें हैं दिहाड़ी
भरते हैं पेट अपना।

गाँव की ललनायें
जो गाँव की शोभा थी
शहर चली गईं 
वो वहाँ करती हैं 
घरों में चौका-बरतन
लगाती हैं पोंछा 
धोती हैं कपड़ा
भरती हैं पेट अपना।

गाँव के नौनिहाल
जो गाँव की मुस्कान थे
शहर चले गए
वो वहाँ करते हैं
गाड़ियों की धुलाई
ढाबों पर खिलाते हैं खाना
भट्टों पर करते हैं काम
भरते हैं पेट अपना।

गाँव में अब केवल
बुड्ढे रहते हैं
जो राह में आँखें बिछाये
करते हैं इन्तजार
काश ! कोई लौट आए अपना।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Friday, November 16, 2018

पाखंडी बाबा

मोटी माला गले पहन कर
चन्दन तिलक लगाओ,
एक चदरिया कंधे रख कर
पाखंडी बाबा बन जाओ।

लम्बी-चौड़ी दाढ़ी रख कर
उसमें इत्र लगाओ,
अपने को भगवान् बता कर
नित पूजा करवाओ।

हाथ फेर कर रोग भगाओ 
जम कर माल उड़ाओ,
अंधभक्तों को मूर्ख बना कर
स्वर्ग के ख्वाब दिखाओ।

बालाओं को संग में रख कर 
अपनी हवस मिटाओ
राजनिती में पहुँच बना कर 
अपनी धौंस जमाओ। 

चेला-चेली मुंडो जम कर
नित आश्रम खुलवाओ,
सत्संगों में भीड़ जुटा कर 
मोटी रकम कमाओ। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )









Tuesday, November 13, 2018

विक्टोरिया मेमोरियल

कोलकाता का
विक्टोरिया मेमोरियल गार्डन,
सुबह का सुहाना समय
मन्द-मन्द बहती बयार। 

मैं दोस्तों के संग 
रोज की तरह मॉर्निंग वॉक पर,
पगडण्डी के दोनों ओर लगी है
रंग-बिरंगे सुन्दर फूलों की कतारें। 

मैं चाहूँ तो हाथ बढ़ा कर
तोड़ सकता हूँ इन फ़ूलों को
मगर मैं नहीं तोड़ता। 

कल किसी ने एक डाल से
गुलाब का फूल तोड़ लिया था,
फूल तो मौन साधे 
व्यथा को सहता रहा। 

मगर इसी एक बात पर
कल पूरे विक्टोरिया में
वह डाल बहुत बदनाम हुई,
दिन भर में किसी ने आँख उठा कर 
उस डाल की ओर देखा तक नहीं। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Saturday, November 10, 2018

मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं

कल-कल करती गंगा बहती
सुन्दर हिमगिरी की शाखाएं
श्यामल बादल शिखर चूमते
मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं।

धवल दर्पण सी निर्मल गंगा
अमृत मय पय पान कराऐं
चाँदी फूल बिखराएं लहरें
मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं।

बहते झरने कलरव करते
मन को मोहे धवल धाराएं
तरल तरंगित नाद सुनाए
मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं।

तपोभूमि ऋषि-मुनियों की
गूँजें यहां पर वेद- ऋचाएं 
नीलकंठ महादेव बिराजे
मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Saturday, November 3, 2018

जन्म दिन का आना

हर वर्ष की तरह
जन्म दिन ने आकर
मेरा दरवाजा खटखटाया 

मैंने स्वागत के साथ 
उसे अपने पास बैठाया
उसने प्यार से पूछा ---- 
कैसा रहा तुम्हारा साल ?
क्या किया इस साल ?

मैं क्या जबाब देता 
साल का एक-एक दिन तो 
वैसे ही निकल गया था 
पता ही नहीं चला कि
कब साल लगा और कब बीता 

मैंने झुकी नज़रों से कहा -
इस साल तो कुछ नहीं किया 
लेकिन अगली साल
जरूर कुछ करूंगा 

उसने अनमने भाव से कहा ---
जीवन के बहत्तर साल बीत गए
बुढ़ापा भी दस्तक देने लग गया
अब तो सम्भल जाओ

जो कुछ करना है करलो
कब जीवन की सांझ ढल जाएगी
पता भी नहीं चलेगा।


Tuesday, October 2, 2018

गर्व कर सके अपने पुरखों पर

तब नहीं चलती थी गाँवों में बसें
पुरखे चले जाते थे पैदल
दस बीस कोस की यात्रा में। 

मुँह -अँधेरे ही 
निकल पड़ते थे घर से
बाँध प्याज और रोटी कमर में। 

राह चलते करवा देते काम
निकलवा देते किसी की बाजरी 
बंधवा देते किसी का झोंपड़ा
नहीं पड़ती शिकन माथे में। 

गाँव की बेटी को समझते
घर की बेटी की तरह
नहीं खाते रोटी, नहीं पीते पानी
गाँव की बेटी के ससुराल में। 

आजादी की लड़ाई में
भले ही उन पुरखों का नाम
नहीं लिखा गया हो
मगर उन्होंने सोना उपजाया था
बंजर धरती में। 

आने वाली पीढ़ी
गर्व कर सके अपने पुरखों पर 
मैं बचाये रखना चाहता हूँ
उनकी स्मृति को
इतिहास के पन्नों में। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Saturday, September 29, 2018

गूढ़ कविता

प्यार पर लिखी कविता
जीवन भर के प्यार
का दस्तावेज होती है।

कैनवास पर उकेरा चित्र
चित्रकार के भावों की
अभिव्यक्त्ति होती है।

एक भूकंप सुनामी बन
हजारों-लाखों की जिंदगी
लील जाता है।

बगीचे का पूरा बसंत
फूलों की एक सुन्दर
माला में कैद हो जाता है।

लम्हों से हुई खता
सदियों की सजा बन जाती है
ऐसा इतिहासकार कहते हैं।


Friday, September 28, 2018

अपने हाथों से सजाऊँ

दिल करता है तुम्हें आज, अपने हाथों से सजाऊँ
तुम्हारे माथे  पर बिंदिया, अपने हाथों से लगाऊँ।

दिल करता है तुम्हारे हाथों में, चूड़ियाँ पहनाऊँ
तुम्हारे होठों पर लाली, अपने हाथों से लगाऊँ।

दिल करता है तुम्हारे पांवों में, पायलियाँ पहनाऊँ
तुम्हारी मांग में सिंदूर, मैं अपने हाथों से लगाऊँ।

दिल करता है, तुम्हारे नाक में नथनी पहनाऊँ
तुम्हारे हाथों में मेंहन्दी, अपने हाथों से लगाऊँ।

दिल करता है, तुम्हारी कमर में करधनी पहनाऊँ
तुम्हारे कानों में झुमका, अपने हाथों से लगाऊँ।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Thursday, September 27, 2018

कसम खाई है

किसी ने झूठ बोल दिया तो क्या हुआ, 
मैंने तो सच बोलने की कसम खाई है।

                                             मैं बड़ा आदमी नहीं बना तो क्या हुआ,               
                                             मैंने तो इंशान बनने की कसम खाई है ।                      

                                        
किसी ने मेरी बुराई करदी तो क्या हुआ, 
मैंने तो भलाई करने की कसम खाई है।

                                        किसी ने कड़वा बोल  दिया तो क्या हुआ, 
                                        मैंने तो प्यार से बोलने की कसम खाई है।


जीवन में दुःख - दर्द आए भी तो क्या हुआ, 
मैंने तो आनन्द से जीने की कसम खाई है।

किसी ने नफ़रत कर भी ली तो क्या हुआ,               
      मैंने तो मोहब्बत करने की कसम खाई है।                    



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Saturday, September 22, 2018

तुम एक बार गाँव जरूर जाना

                                                                          मैं चाहता हूँ
तुम एक बार
गाँव जा कर आओ

गाँव में हमारे
 बीते हुए बचपन को
एक बार देख कर आओ

तुम घूमना 
गाँव की गलियों में 
जहाँ हम नगें पाँव दौड़ा करते थे

तुम बैठना बैलगाड़ी में 
जिस पर बैठ कर  
हम शहर पढ़ने जाते थे 

तुम जाना खेत में
जहाँ हम काकड़ी, तरबूज 
तोड़ कर खाते थे

तुम जाना बाड़े में
जहाँ हम गाय का ताजा दूध
खड़े-खड़े पी जाते थे

तुम बैठना
पीपल की ठंडी छाँह में
जहाँ हम झूला-झूलते थे  

तुम देखना 
गाँव में हमारा बचपन 
कैसे बीता था। 
  





Thursday, September 20, 2018

चाँदनी संग लौट आना तुम

मैं रात भर सेज सजाता रहा
          मेरी  यादों  में बसी रही तुम
                   अभिसार की सौगंध तुमको
                             मधुऋतु संग लौट आना तुम।

                              मैं रात भर फूल बिछाता रहा
                                      मेरी पलकों में बसी रही तुम
                                                मनुहारों की  सौगंध  तुमको
                                                         पुरवा के संग लौट आना तुम।

                                                         मैं रात भर दीप जलाता रहा
                                                                  मेरी  सांसों में बसी रही तुम
                                                                             कांपते दीप की सौगंध तुमको
                                                                                     सावन  संग  लौट  आना तुम।

                                                                                     मैं रात  भर राह देखता रहा 
                                                                                              मेरे ख्वाबों में बसी रही तुम
                                                                                                     पहले प्यार की सौगंध तुमको
                                                                                                              चाँदनी संग लौट आना तुम।





( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )


Saturday, September 8, 2018

नारी सशक्तिकरण

                                                                  मैं अब नहीं बनना चाहती
अहिल्या की प्रस्तर प्रतिमा
जिसे कोई राम आकर
पांव लगाए। 

मैं अब नहीं बनना चाहती
घृतराष्ट्र की गांधारी
जो आँख पर पट्टी बाँध कर 
जीवन बिताए। 

मैं अब नहीं बनना चाहती
महाभारत की द्रोपदी
जिसे कोई धर्मपुत्र जुए मे
दाँव पर लगाए। 

मैं अब नहीं बनना चाहती
नल की दमयन्ती
जिसे उसका प्रेमी जंगल में 
 छोड़ कर चला जाए। 

मैं अब नहीं बनना चाहती
राम की सीता
जिसकी सतीत्व के लिए
अग्नि -परीक्षा ली जाए। 

मैं अब अबला नहीं
सबला बन जीना चाहती हूँ,
आत्मनिर्भर सशक्त नारी की 
 कहानी खुद लिखना चाहती हूँ। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Friday, September 7, 2018

अग्नि का रहना शुभ होता है

माँ रोज रात को
चूल्हे में अंगारों को 
दबा कर रखती थी 
ताकि अगली सुबह 
वो उनसे चूल्हा जला सके 

माँ मुँह अँधेरे उठ कर 
राख के ढेर में छुपी
चिनगी को तलाशती 
छोटी-छोटी लकड़ियां 
उसके ऊपर रखती और 
थोड़ी ही देर में धुऐं की 
पताका फहरा देती 

माँ कहा करती 
घर के चूल्हे में अग्नि 
रहनी चाहिए 
अग्नि का रहना शुभ होता है।  

Monday, September 3, 2018

अतीत और वर्तमान

हमें बीती स्मृतियों 
को भूलना होगा
और वर्तमान को
सवांरना होगा

अतीत का सत्य
सत्य नहीं है
वह तो अब पूर्ण
असत्य है

अतीत से
चिपके रहना
वर्तमान की
उपेक्षा करना है

अतीत से
मोह घटाना होगा
वर्तमान को
गले लगाना होगा

अतीत तो
धूल-धूसरित पथ है
वर्तमान ही
आलोक का पथ है

अतीत तो
बीता हुआ सपना है
वर्तमान ही
आज अपना है।



Saturday, September 1, 2018

यह कैसी विडम्बना है ?

पैंतीस वर्ष की लड़की की 
दहेज़ के लिए शादी नहीं हो रही है,
अब वह हताश होने लगी है
वह आत्महत्या करने जा रही है।

लड़के की पढाई ख़त्म हो गई
पांच साल से नौकरी ढूँढ रहा है,
उसे अभी तक नौकरी नहीं मिली
वह नक्शलवादी बनने जा रहा है।

बीच सड़क पर कुछ गुंडे 
अकेली लड़की को छेड़ रहें  हैं,
भीड़ में कुछ वीडियो बना रहें हैं
बाकी के बुद्ध बनने जा रहें हैं।

हम दुनिया के सबसे बड़े
लोकतंत्र में रह रहे हैं,
गुंडे, बदमाश चुनाव जीत कर
देश का कानून बनाने जा रहे हैं।

देश में गरीब भूखा सो रहा है
बाहुबली गुलछर्रे उड़ा रहा है,
राजनेताओं के संरक्षण में
भ्र्ष्टाचार बढ़ता जा रहा है।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Tuesday, August 28, 2018

एक मनःस्थिती का चित्रण

तुम्हारी यादें
हर रोज देती हैं मुझे 
बासंती भोर की ताजगी 
पहली बारिश की सुवाश 
पूस की रात सी ठंडक 
अश्विन के दिन सी धुप
जेठ की दुपहरी सी गरमी 
शरद के बादलों सी नरमी 
पूनम की चांदनी सी चमक 
गुलाब के फूलों सी महक 
हर मौसम के संग 
वीराने में जैसे बहार हो आई 
तुम्हारी याद ताजा हो आई। 



कल हम गांव चलेंगे

गांवों से शहर की ओर 
पलायन करती 
युवा पीढ़ी को हम देखेंगे  
कल हम गांव चलेंगे 

वर्षा के इन्तजार में 
धरती की फटती 
देह को हम देखेंगे 
कल हम गांव चलेंगे 

निर्जल पड़ी 
बावड़ी की सुनी 
पनघट को हम देखेंगे 
कल हम गांव चलेंगे 

गांव की गलियों में 
भूखे पेट घूमती 
गायों को हम देखेंगे 
कल हम गांव चलेंगे 

शहर से लौट आने का 
इन्तजार करती पथराई 
आँखों को हम देखेंगे 
कल हम गांव चलेंगे 

ध नंगी देह में 
खेतों में काम करते 
अन्नदाता को हम देखेंगे 
कल हम गांव चलेंगे।

Saturday, August 18, 2018

भवसागर पार लगाओ

प्रभु! करुणा बरसाओ
आवागमन मिटे जीवन से
अब ऐसी भक्ति जगाओ
भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! ज्ञानसुधा बरसाओ
मिथ्या मोह मिटे जीवन से
अब ऐसी राह दिखाओ
भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! दिव्यधार बहाओ
कर्म के पाप कटे जीवन से
अब ऐसी लगन लगाओ
भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! प्रेमसुधा बरसाओ
काम-क्रोध मिटे जीवन से
अब ऐसी कृपा बनाओ
भवसागर पार लगाओ।

प्रभु !शांतिसुधा बरसाओ
लोभ-मोह मिटे जीवन से
अब ऐसी कृपा बनाओ
भवसागर पार लगाओ।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )









Friday, August 17, 2018

मीठे बोल बोलने वाली

मुझको बिना बताये वो, लम्बे सफर में चली गई
पता नहीं कब मिलेगी, अनंत सफर जाने वाली।

ज्योत्सना सी स्निग्ध सुन्दर, तारिका थी गगन की
तोड़ गई वो वादा अपना,  प्रेम-गीत गाने वाली।

प्रीति की अनुभूति थी वो, रूप की साकार छवि
बीच राह में छोड़ गई, सातों कसमें खाने वाली।

कोयल जैसी वाणी थी, फूलों जैसी  नाजुक थी
जीवन मेरा सूना कर के, चली गई जाने वाली।

मेरे दिल पर छोड़ गई, प्यार भरी यादें अपनी
कैसे भूलू मैं उसको, मीठे बोल बोलने वाली।









Thursday, August 16, 2018

मेरी अभिलाषा

मैं बनाना चाहता हूँ
इस धरा को वृन्दावन
जिस के कुंज-कुंज में
हो प्रभु का दर्शन।

मैं लिखना चाहता हूँ
प्रभु की पवित्र कथा
जिसे पढ़ कर दूर हो
सारे जग की व्यथा।

मैं बनाना चाहता हूँ
प्रभु का सुन्दर चित्र
जिसे देख सब की
आत्मा बने पवित्र।

मैं बहाना चाहता हूँ
प्रेम की रसधार
जिससे सबको मिले
आनंद की बयार।

मैं जलाना चाहता हूँ
भक्ति-ज्ञान की चेतना
जिसके प्रकाश में
मिटे सब की वेदना।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )



Monday, August 13, 2018

यह इन्तजार तुम्हारा

मैं रोज करता हूँ
तुम्हारा इन्तजार कि
शायद तुम आज आओगी

वर्षात आई और चली गई
मैं इन्तजार करता रहा
मगर तुम नहीं आई 

पुरे सावन छतरी ताने 
इन्तजार में खड़ा रहा
मगर तुम नहीं आई

हर सुबह से शुरु होता है
तुम्हारा इन्तजार और
शाम ढल जाती है

अगले दिन फिर एक नए
इन्तजार के साथ
एक नई भोर शुरू हो जाती है

करते-करते इन्तजार
पोर-पोर टूट गया है मेरा
कब ख़त्म होगा
यह इन्तजार तेरा।

Saturday, July 28, 2018

मानव की मनुजता

                                                                       मैंने तुमको देखा 
                                                                            बुजुर्ग की 
                                                                         लाठी बनते हुए  

मैंने तुमको देखा 
घायल को
  अस्पताल पहुँचाते हुए 

मैंने तुमको देखा 
भूखे को
 रोटी खिलाते हुए

मैंने तुमको देखा 
प्यासे को
पानी पिलाते हुए  

मैंने तुमको देखा 
भटके को 
राह दिखाते हुए

मैंने तुमको देखा 
 रोते का
आँसूं पोंछते हुए 

मैं तुम्हारा नाम
इतिहास के पन्नों में
स्वर्ण अक्षरों में लिखूँगा 

ताकि आने वाली पीढ़ी
देख सके
मानव की मनुजता।  



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Wednesday, July 25, 2018

प्यार भरो बच्चों के दिल में

प्यार भरो बच्चों के दिल में
सावन बन बरसेगें वो 

पढ़ा लिखा विद्वान बनाओ
रोशन नाम करेंगे वो

मीठी वाणी इनसे बोलो
हँस-हँस बात करेंगे वो

दिल में इनके दीप जलाओं
रोशन राह करेंगे वो 

गीत भरो तन-मन में इनके
चहक-चहक गाएंगे वो

सच्चे सुख की राह दिखाओ
धरती स्वर्ग बनाएंगे वो

प्यार से इनको गले लगाओ 
नेह सुधा बरसाएंगे वो

नन्द यशोदा बन कर पालो
बन कर कृष्ण दिखाएंगे वो।



[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]







































































































































































































Tuesday, July 24, 2018

प्रेसबी की नर्स "रोज "

प्रेसबी की नर्स  "रोज "
मनीष से बातें कर रही थी
बगल मे खड़ा डॉक्टर
काफ़ी देर से सुन रहा था

उसने रोज से पूछा -
क्या तुम इसे जानती हो ?
रोज तपाक से बोली -हाँ
यह मेरा छोटा भाई है

मै थोड़ी ज्यादा गौरी हूँ 
ये थोड़ा कम गौरा है
लेकिन मैं भी अब
इसकी तरह होने लग गयी हूँ

थोड़े दिनों में 
हम दोनो का रंग
एक जैसा हो जाएगा
फिर तुम नही पूछोगे

और उसी के साथ "रोज"का
चिर परिचित हँसी का
जोरदार ठहाका
डॉक्टर झेंप कर हँसने लगा। 
                   

[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]





















Monday, July 23, 2018

जीवन चलता है

कहीं पर बड़े - बड़े भंडारे हो रहे हैं     
         कँही पर बच्चे भूखे सो रहे हैं       
 कोई फाईव स्टार में पार्टी दे रहा है       
कोई कचरे के ढेर को बिन रहा है   
                जीवन फिर भी चलता है        

    किसी का घर रोशनी से जगमगा रहा है                
 किसी का घर आग से जल रहा है     
किसी के यहाँ गीत गाये जा रहे है    
किसी के यहाँ शोक मनाया जा रहा है        
             जीवन फिर भी चलता है    

कोई हवाई जहाज में सफ़र कर रहा है       
       कोई नंगे पांवों चला जा रहा है 
  कोई वातानुकूल कमरे में सो रहा है    
   कोई फुटपाथ पर रात बिता रहा है 
                जीवन फिर भी चलता है  

  कहीं विजयश्री का जस्न हो रहा है
   कहीं हार का विशलेषण हो रहा है
कही बर्लिन को एक किया जा रहा है   
  कहीं कोसोवो को अलग किया जा रहां है           
                जीवन फिर भी चलता है  

       अगर जीवन का आनंद लेना है 
         तो हमें  हँसते हुए ही जीना है 
             हँसी से मुँह नहीं मोड़ना है
        खुशियाँ से नाता नहीं तोडना है 
                जीवन तो फिर भी चलता है। 




 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

क्या खोया - क्या पाया ?

आज हमारे सम्बन्ध विच्छेद के
दस्तावेज पर न्यायाधीश ने
हस्ताक्षर कर दिया

कर्मकांडी वकीलों ने भी
हमारे रिश्ते की मृत्यु पर गरुड़
पुराण का पाठ पढ़ दिया

मैंने भी तुम्हारे प्यार का
सारा कूड़ा कचरा दिल से खुरच
कर बाहर फैंक दिया

और सुनो ! रिश्ते की कब्र पर
कफ़न गिरा एक दुखद अतित
का अन्त भी कर दिया

तुम्हारे जितने भी पत्र और तस्वीरे थी
उनको भी आज गंगा मे बहा कर
तर्पण कर दिया

लगे हाथ गंगा किनारे तुम्हारी यादों
और अहसासों का पिंडदान
भी कर दिया

दफ़न कर दिया जिन्दगी
का हर वह लम्हा जो तुम्हारे
साथ बिताया

एक लम्बे समय बाद
दिल ने आज राहत ओ सूकून
भरा दिन बिताया

सोच रही हूँ जिंदगी में
मैंने तुम्हारे साथ
क्या खोया - क्या पाया ?


  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

मेरा स्वाभिमान

मेरी शादी की चुन्दड़ी में 
लगे सलमे-सितारे अब मेरी
आत्मा में चुभने लगे हैं 

लग्न और मुहूर्त में
बन्धे ये सारे बन्धन 
मुझे अब झूठे लगने लगे हैं 

मैं नहीं भूला सकती 
अपनी पीड़ा और अपमान 
जो उसने मुझे दिये हैं 

व्यथित शब्दों
के तीर अब मेरे ध्यैर्य की 
आख़िरी सीमा भी लांघ गये हैं 

मेरा स्वाभिमान भी
अब उसके अंहकार के लिए
खतरा बन गया है 

मैंने जितना
समर्पण का भाव रखा 
उतना ही वो निष्ठुर बन गया है 

मैं जीवन संगिनी
या सहभागिनी की जगह
बंदिनी बना दी गयी

कंकरीट में दबी
पगडण्डी की तरह मेरी
हर एक इच्छा दबा दी गयी

मैं अब इस बंधन से
मुक्त होकर अपना नया
जीवन जीना चाहती हूँ

पुरानी यादों को
अब मै हमेशा के लिए
दफना देना चाहती हूँ

अपनी शादी की
चुन्दडी को अब मैं 
उतार देना चाहती हूँ

उसमे लगे 
सलमे-सितारे अब मैं 
उधेड़ देना चाहती हूँ।




 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Thursday, July 19, 2018

आज कहाँ हो तुम ?

आज तुम्हें गए
दस दिन हो गए लेकिन
लगता है जैसे कल की बात हो

पंडित ने आज
दस-कातर करवा दिए
कल नारायण बलि भी करा देगा

भेजेगा छींटे
घर का शौक मिटाने
क्या वो छींटे मेरे मन के
शौक को भी मिटा पायेंगे

बारहवें के बाद तो
बंधु-बांधव भी चले जायेंगे
संग रहेगी केवल तुम्हारी यादें

तुम्हारी यादें
 जो अब जीवन भर
आँखों से अश्रु बन बहेगी 

तुम जो मुझे
कभी उदास देखना भी
पसंद नहीं करती थी

आज मेरी आँखों से
अविरल अश्रु धारा बह रही है 
आज कहाँ हो तुम ?



  ( यह कविता "कुछ अनकही ***"में छप गई है। )

Friday, July 6, 2018

मायाजाल महानगरों का

बचपन में गाँव छोड़   
                                                                       बाहर निकला था
दो पैसा कमाने 

कहाँ-कहाँ नहीं भटका
दो पैसे कमाने के
चक्कर में

त्रिपुरा में अगरतला
आसाम में धुबड़ी
बिहार में मुजफ्फरपुर 
मेघालय में शिलोंग
हरियाणा में फरीदाबाद
बंगाल में कोलकाता

हजारों मीलों का
सफर किया और
हर प्रान्त में एक नया
व्यापार भी शुरू किया

त्रिपुरा में जूट का
बिहार में तिलहन का
शिलोंग में लकड़ी का
हरियाणा में सेरामिक्स का
कोलकाता में आढ़त का

गाँव से निकला तब सोचा था
ढेर सारा पैसा कमा कर
लौट आऊँगा गाँव 

पैसा तो कमाया
मगर नहीं लौट पाया गाँव 
गाँव सदा-सदा के लिए 
सपना बन कर ही रह गया 
 
मेरे गाँव की गलियाँ तो
आज भी जगती है
मेरे लौट आने के इन्तजार में,
मगर मैं फँस गया
महानगरों के मायाजाल में।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )


Thursday, June 28, 2018

मधुमासी जीवन का अन्त

कल शाम
अचानक धर्मपत्नी का
स्वर्गवास हो गया

देह को रात भर
बर्फ की सिल्लियों पर
रखा गया

तुलसी का बीड़ा रख
अगरबत्तियों को
जलाया गया

रात भर प्रभु कीर्तन  हुवा
सुबह होते ही
उठाने का काम शुरू हुवा

नहला कर
नई साड़ी पहनाई गई
माँग में सिंदूर भरा गया

अर्थी को फूलों से सजा
रामनामी चद्दर को
ओढ़ाया गया

राम नाम सत्य का
उच्चारण करते हुए अर्थी को
श्मशान घाट लाया गया

देह को चिता पर रख
घी, नारियल, चन्दन
आदि लगाया गया

बेटे ने मुखाग्नि देकर
अंतिम संस्कार की
रश्म को पूरा किया

यह सब कुछ मेरी
नज़रों के सामने हुवा
मैं मूक दर्शक बन रह गया

पल भर में मेरे
मधुमासी जीवन का
अन्त हो गया।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में छप गई है। )

धूप-छांव

सर्दियों में मैंने सोचा
हमारा घर धूप में
होना चाहिए

गर्मियों में मैंने सोचा
हमारा घर छांव में
होना चाहिए

फिर सोचा पहले
घर तो बनना चाहिए
घर होगा तो धूप -छांव
भी आ जाएगी

बेटा होगा तो
बहु भी आ जाएगी
दिन उगेगा तो
रात भी ढल जाएगी।




Monday, June 25, 2018

मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगा

तुम चिंता मत करो
मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगा

मैं तुम्हारा दुनियाँ की
सबसे अच्छी अस्पताल में
इलाज कराऊंगा
लेकिन मरने नहीं दूंगा

मैं अपनी सांसों में से
कुछ सांसें तुम्हें दूंगा
अपने सपनों में से
कुछ सपने तुम्हें दूंगा
लेकिन मरने नहीं दूंगा

तुम घबराना मत
मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा
जरुरत पड़ी तो मैं तुम्हें
यमराज से भी छिन लूंगा
लेकिन मरने नहीं दूंगा

मुझे यह भी पता है कि
मेरे ज़िंदा रहने के लिए
तुम्हारा ज़िंदा रहना
कितना जरूरी है मेरे लिए।




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )














Saturday, June 23, 2018

मेरी यादों में गांव

गांव में
गोबर-मिटटी से पुते घर
घास -फूस की झोंपड़ियाँ
अब नजर नहीं आती

पनघट पर
बनी-ठनी पनिहारिनों की
हंसी-ठिठोली
अब नजर नहीं आती

चौपाल पर
चिलम- हुक्का के संग
लम्बी-चौड़ी बैठकें
अब नजर नहीं आती

पायल संग चलती कुदाली
बैलगाड़ी पर
पुरे परिवार की सवारी
अब नजर नहीं आती

सांझ-सवेरे
गायों को दुहना
चक्की से आटा पीसना
अब नजर नहीं आता

खेतो में
चौपायों का चरना
अलगोजो को बजना
अब नजर नहीं आता

लस्सी,गुड़ के साथ
बाजरे की रोटी खाना
प्याज के साथ राबड़ी पीना
अब नजर नहीं आता।




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Thursday, May 31, 2018

प्यार भरा जीवन रहा

एकाकी जीवन का विषाद लिए,  मैं सोचता रहा
विरह वेदना का इतना दर्द, मुझे ही क्यों हो रहा।

रात भर आँखों से अश्रु बहे, तकिया भीगता रहा
अरमान धरे रह गए, सपने चूर होते देखता रहा।

जब-जब उसकी याद आई, तस्वीर देखता रहा
झुठी हँसी हँस कर, गम के दर्द को छुपाता रहा।

दिन और रातें गुजरती रही, समय बीतता रहा
ग़मों का दर्द मुठ्ठी में दबा, जीवन को जीता रहा।

कविताओं के संग, यादों का चिराग जलता रहा
आँखें बरसती रही, कविता में दर्द  रिसता रहा।

यह बात दीगर की हमारा, उम्र भर साथ नहीं रहा
मगर जब तक साथ रहा, प्यार भरा जीवन रहा।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 



Friday, May 25, 2018

और तुम आ जाओ

घनघोर घटा हो
रिमझिम बरसात हो
मेरा मन भीगने का हो
और तुम आ जाओ।

चांदनी रात हो
गंगा का घाट हो
किनारे नौका बंधी हो
और तुम आ जाओ।

मंजिल दूर हो
पांव थक कर चूर हो
किसी का साथ न हो
और तुम आ जाओ।

आँखों में नींद हो
ख्वाबों में तुम हो
सपने का टूटना हो
और तुम आ जाओ।

मौसमें बहार हो
मिलने की चाहत हो
पलकों फूल बिछे हो
और तुम आ जाओ।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 



Thursday, May 17, 2018

हमें भी याद कर लेना

आँखों ही आँखों से,  इशारों की बात आए
घूँघट से झांक कर, हमें भी याद कर लेना।

ख़्वाबों में कभी,  हसीन चेहरा नजर आए
 थोड़ा मुस्कराकर,  हमें भी याद कर लेना।

बन संवर कर, कभी आईने के सामने जाओ
 खुद से शरमा कर,  हमें  भी याद कर लेना।

राहे सफर में, अगर चलते-चलते थक जाओ
 थोड़ी देर सुस्ता कर,  हमें भी याद कर लेना।

चाँद-सितारों की महफ़िल में, अगर कभी जाओ
थोड़ा  निचे  झांक कर,  हमें  भी  याद कर लेना।

चलो छोड़ो जाने दो, अब हम कभी नहीं रूठेंगे 
 तुम भी नजर अंदाज कर,  हमें  याद कर लेना। 

Friday, May 4, 2018

बोलने वाली रातें चली गई

शांत जीवन में, एक सुनामी लहर सी आई
पल भर में, हजारों अश्क दे कर चली गई।

जिन्दगी में हर ख़ुशी, अब गैर हाजिर हो गई
वो बोलने वाली रातें,न जाने कहाँ चली गई।

मेरी शेर ओ शायरी, किताबों में धरी रह गई
सुर्ख होठों पर लगा, पढ़ने वाली तो चली गई।

बिना सोचे समझे, वो अनमनी चाल चल गई
दिन सुनसान और रातें वीरान कर,चली गई।

कसमें खाई थी साथ रहेंगे, एकाकी कहाँ गई
एक अधूरा ख्वाब दिखा, बिना कहे चली गई।

जीवन में हर कदम पर, सिसकियाँ ही रह गई
मेरे दिल में यादों की शमा जला, वो चली गई।



 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Monday, April 30, 2018

तुम बरखा बन चली आना।

आज बहती पुरबा ने 
हौले से मेरे कान में कहा-
क्यों उदास बैठे हो ?

समेटो बिखरे पलों को फिर से
सहेजो अपनी बीती यादों को फिर से 
याद करो संग-सफर की बातें
बेहद मीठी होती है यादें

मैं जैसे ही पुरानी यादों में डूबा
तुम चली आई बरखा बन मेरे पास
तुम्हारी यादों की रिमझिम ने
भीगा दिया मेरा तन-मन-प्राण

मैं भूल गया तन्हाई
डूबा यादों की गहराई
तुम कल फिर से आना
इसी तरह तन-मन भिगोना 
मैं धरा बन प्रतीक्षारत रहूंगा
तुम बरखा बन चली आना।


यादों की नाव

मेरी स्मृतियों में
आज भी ताजा है वे दिन
जब ढलती सांझ में
गंगा किनारे बंधी नाव में
जाकर बैठ जाते थे

गंगा की लहरों पर
हिचकोले खाती नाव में
शीतल  हवाओं के झोंके
मन को शकुन देते थे

कितनी बातें करते थे हम
अंत नहीं था बातों का
रात घिर आती लेकिन
बातें खतम नहीं होती थी

गीता भवन के
दरवाजे बंद होने की
घंटी सुन कर ही हम
लौटते थे अपने कमरे में

आज जब भी
तुम्हारी याद आती है
आँखों में उतर आती है गंगा
चल पड़ती है यादों की नाव।



 [ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]

Tuesday, April 17, 2018

पांच वर्ष की पोती आयशा

मेरी पांच वर्ष की पोती
आयशा
नहीं जानती
चाँद, तारों और परियों
के बारे में

उसने नहीं देखा
कभी अम्बर में
आकाश गंगा को
तारों की बरात को
वह नहीं जानती चाँद में
सूत कातती  बुढ़िया को

उसने नहीं सुनी
परियों की कहानियाँ
जो उतर कर आती है
आसमान से  धरती पर

जिनके उड़ने के लिए
लगे रहते है सफ़ेद पंख
हाथ में जिनके रहती है
सुनहरी जादू की छड़ी

आयशा के पास
ढेरों खिलोनें हैं
पेंटिंग के लिए कलर्स है
अल्फाबेट की पुस्तकें हैं

अब तो वो खेलने लगी है
अपनी मम्मी के मोबाइल्स से
शिनचैन, नोबिता जैसे
कार्टूनों से।

उसे नहीं मालूम
चाँद, सितारें और परियों की
दुनियां के बारे में।




Monday, April 16, 2018

जितना दिया है उतना ही तो मिलेगा

आज बेटे की
शादी की सालगिरह है
बेटे ने बाप के पास आकर
प्रणाम करने की
जरुरत नहीं समझी
बहु ने भी रास्ते चलते
प्रणाम कर अपना
फर्ज निभा लिया है

शाम को होटल में
डिनर और केक काटाने का
प्रोग्राम बना
बेटे ने अपने दोस्त और
उसकी बहु को बुलाया
मुंबई से आई विजि को भी
आमंत्रित किया

लेकिन नहीं कहाँ
बेटे ने बाप को कि
आज चलना होटल में
सभी साथ खाना खाएंगे
और केक काटेंगे

बाप अकेला घर पर था
सोच रहा था कि क्या कल
इसके बेटे भी इसके साथ
यही व्यवहार करेंगे ?
क्या उसे भी इतना ही दर्द होगा
जितना आज मुझे हो रहा है ?

लेकिन दूसरे ही क्षण
बाप ने माथे को झटक दिया
नहीं नहीं उन्हें इतना दर्द नहीं होगा
क्योंकि उन्होंने जितना दिया है
उतना ही तो मिलेगा।


Tuesday, April 10, 2018

देखो प्यारा बसंत आया

देखो प्यारा बसंत आया

सर्दी की हो गई विदाई
सौरभ लेकर हवा आई
बादलों से ब्योम  छाया
देखो प्यारा बसंत आया

बागों में कोयल कुहकी
बौरों से बगिया महकी
भंवरा फूलों से कह आया
देखो प्यारा बसंत आया

पिली सरसों खेत सजे
नव पल्लव से पेड़ सजे
फूलों-पत्तों में रंग छाया
देखो प्यारा बसंत आया

धरती का आँगन महका
गौरी बाँहों में प्यार सजा
प्रणय का मौसम आया
देखो प्यारा बसंत आया ।

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Saturday, April 7, 2018

ऊखल, मूसल और घट्टी

गाँव के घर के आँगन में
उपेक्षित पड़ा है ऊखल 
पास पड़ा है मूसल 

रसोई के बरामदे में
एक कोने में
उपेक्षित पड़ी है घट्टी

कभी घर की औरतें
कूटती थी खिचड़ा
ऊखल-मूसल से

मुँह अँधेरे उठ कर
पाँच सेर बाजरी 
पीसती थी घट्टी से

अब बड़े शहरों में 
इन्हें दिखाया जाता है
"पधारो म्हारे देश"
जैसे प्रोग्रामों में

ताकि आज की पीढ़ी
एक बार देख सके
लुप्त होती धरोहर को

अनुभव कर सके
अपने पूर्वजों के
कठिन परिश्रम को।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )



विरह वेदना

जुदा हो कर भी वो मेरे जहन में बसी है
विरह वेदना उसकी आज भी सत्ता रही है।

फूल सा दिल कुम्भला गया वो चली गई 
आँखें आज भी उसकी राह देख रही है।

हवा में उसके गुजरे पलों के नगमें घुले हैं
उसकी गुजरी हुई साँसें मिलने आ रही है। 

याद करता नहीं फिर भी, याद आ रही है
उसकी याद में, नयनों से प्रीत बह रही है।

वो तो आज भी मेरी सांसों संग बसी हुई है 
साँसों से ज्यादा तो उसकी यादें आ रही है। 

जीवन की संध्या में, सारी खुशियां खो गई
यादों की पीड़ा मन्दाकिनी सी बह रही है।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]







Thursday, March 8, 2018

काश तुम आकर

काश तुम आकर
जीवन के पतझड़ में
बसन्तोत्सव मनाजाओ।

काश तुम आकर
प्यासे होंठों को
शीतल जल पीलाजाओ।

काश तुम आकर
निस्सार जीवन को
प्यार की महक देजाओ।

काश तुम आकर
तन्हाई के जीवन में
हमसफ़र बनजाओ।

काश तुम आकर
बिखरते जीवन को
सहारा देजाओ।

काश तुम आकर
उदास शाम को
हसीन बनाजाओ।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 


Wednesday, February 21, 2018

करले मन की होली में

रंग प्यार का लिए खड़ा मैं
नैन बिछाए राहों में
एक बार आ जाओ सजनी
प्रीत जगाने बाहों में

चार होलियां निकल गई
बिना तुम्हारे रंगों में
एक बार आ जाओ जानम
रंग खेलेंगे होली में

यादों के संग मन बहलाया
मुश्किल बहलाना होली में
एक बार आ जाओ मितवा
धाप लगाए चंगों में

लहरों जैसा मन डोले
आज मिलन की आसा में
एक बार आ जाओ रमणी
घूमर घाले होली में

मन का भेद, मर्म आँखों का
खुल जाता है होली में
एक बार आ जाओ मानिनी
करले मन की होली में।




[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

Saturday, February 10, 2018

बसंत आ रहा



 उन्मुक्त हो पवन, गुलशन में बह रहा   
 ठिठुरन  का अंत हुवा, बसंत आ रहा।   

                              अंग - अंग धरा का, पुलकित हो रहा  
                              मस्त भंवरा बाग में, कलियाँ चुम रहा ।  
                             

बसंती रंग ओढ़, चमन मुस्करा रहा
उपवन में  फूलों पर, यौवन छा रहा।  

                                 सिंदूरी आभा लिए,पलास दमक रहा
                                कोयलियां बोल उठी, भंवरा  डोल रहा।  

नभ में पयोधर देख, मयूर नाच रहा                                         
बोगनवेलिया खिला, टेसू मचल रहा।  

                                 अमुवा भी बौराया, पपीहा बोल रहा 
                                 धरती के हर कोने में, बसंत छा रहा।

नए - नए रंग लिए,  मधुमास आ रहा, 
स्वर्गिक सुन्दरता का, प्रवाह बह रहा।  


                                यौवन में उमंग भर, ऋतुराज आ रहा   
                               प्रेमियों के मिलन का, त्योंहार आ रहा।  


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )
  






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Friday, February 2, 2018

कांटे बिछा कर नहीं

तुम अपना घर चाहे जीतनी रोशनी से सजाओ
मगर किसी कोठरी का दीपक बुझा कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे जितने ऐशगाह बनाओ
मगर किसी का आशियाना उजाड़ कर नहीं।

तुम अपने घर में चाहे जीतनी खुशियाँ मनाओ
मगर किसी बेबस की खुशियाँ छीन कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे  जितने पकवान बनाओ
मगर किसी गरीब का निवाला छीन कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे जितने  फूल  बिछाओ
मगर किसी की राह में कांटे बिछा कर नहीं। 




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

बिन सजनी के कैसा सावन

रिमझिम-रिमझिम मेहा बरसे 
बूंदन परत फुहार रे 
दादुर, मौर, पपीहा बोले 
कोयल करत पुकार रे 

कोई गाये सावन कजरी 
कोई मेघ मल्हार रे 
बिन सजनी के सूना लागे 
घर आँगन ओ द्वार रे 

सारी सखियाँ बनठन आई 
झुले  प्रेम हिण्डोले रे 
मेरी सजनी दूर बसत है 
लागे सावन बेरी रे 

बिन सजनी के कैसा सावन 
कैसा तीज-त्योंहार रे 
फीका लगता मुझ को सावन 
बिन बिछुवन झंकार रे।  



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

Wednesday, January 17, 2018

उम्र के पड़ाव पर

तुम्हारे जाने के बाद
मैं अपने ही घर में
एक अजनबी की  तरह
रहने लग गया हूँ

कम बोलना और
ज्यादा सुनने का प्रयास
करने लग गया हूँ

कोई कुछ भी कहता है
तो मान लेता हूँ
तर्क अब नहीं करता हूँ

किस से करू तर्क
किससे कहूँ मन की बात
तुम्हारे सिवा कोई
हमजुबां रहा भी तो नहीं

जज्बातों का
सैलाब उठता है
नाराजगियों का
तूफ़ान भी उठता है

मगर उम्र के
इस पड़ाव पर
जिन्दगी को किसी तरह
सम्भाले चल रहा हूँ।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]






Monday, January 15, 2018

आज मकर सक्रांति आई

कहींअर्पण किया
कहीं तर्पण किया
कहीं डुबकी भी लगाई
आज मकर सक्रांति आई।

कहीं लोहड़ी मनाई
कहीं पोंगळ मनाई
कहीं बिहू भी मनाई
आज मकर सक्रांति आई।

कहीं खिचड़ा बनाया
कहीं चूँगापीठा खाया
कहीं पिन्नी भी बनाई
आज मकर सक्रांति आई।

सूर्य उत्तरायण को चले
भक्त गंगा- सागर चले
कहीं पतंग भी उड़ाई
आज मकर सक्रांति आई।


Tuesday, January 9, 2018

घर की निशानी चली गई

बस्ते के बोझ तले बचपन बीत गया
मस्ती भरी सुहानी नादाँ उम्र चली गई।

तेल,नून,लकड़ी के भाव पूछता रह गया
जीवन से झुंझती मस्त जवानी चली गई।

बुढ़ापा क्या आया सब कुछ चला गया
दरिया सरीखी दिल की रवानी चली गई।

चूड़ियाँ, बिन्दी, मंगलसुत्र सब हट गया
औरतों के सुहाग की निशानी चली गई।

पढ़-लिख कर बेटा शहर चला  गया
बाप के बुढ़ापा की उम्मीद चली गई।

गांव का जवाँ फ़िल्मी गीतों में रीझ गया
मेघ मल्हार, कजली की तानें चली गई।

गांव में खाली पड़ा मकान बिक गया
गांव की जमीं से घर की निशां चली गई।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Wednesday, January 3, 2018

बरस बीतग्या (राजस्थानी कविता )

सहेळ्या रो झुलरों
माथै पर घड़ो
बणीठणी पणिहारियाँ देख्या न्हं
बरस बीतग्या।

सोनल बरणा धौरा
खेजड़ी'र खोखा
मोरियाँ रो नाच देख्यां न्हं
बरस बीतग्या।

फोग'र रोहिड़ा
खेत'र खळां
मदवा ऊंटां री गाज सुण्यां न्हं
बरस बीतग्या।

बळती अर लूवां
सरदी'र डांफर
भूतियो बगुळियो देख्यां न्हं
बरस बीतग्या।

सावण रो महीणो
रिमझिम बरसतो म्है
अलगोजा पर मूमल सुण्यां न्हं
बरस बीतग्या।

आँगण मायं माण्डना
ब्याव रो राती जोगो
लुगायां रो टूंटियों देख्यां न्हं 
बरस बीतग्या।