मैं अब नहीं बनना चाहती
अहिल्या की प्रस्तर प्रतिमा
जिसे कोई राम आकर
पांव लगाए।
मैं अब नहीं बनना चाहती
घृतराष्ट्र की गांधारी
जो आँख पर पट्टी बाँध कर
जीवन बिताए।
मैं अब नहीं बनना चाहती
महाभारत की द्रोपदी
जिसे कोई धर्मपुत्र जुए मे
दाँव पर लगाए।
मैं अब नहीं बनना चाहती
नल की दमयन्ती
जिसे उसका प्रेमी जंगल में
छोड़ कर चला जाए।
मैं अब नहीं बनना चाहती
राम की सीता
जिसकी सतीत्व के लिए
अग्नि -परीक्षा ली जाए।
मैं अब अबला नहीं
सबला बन जीना चाहती हूँ,
आत्मनिर्भर सशक्त नारी की
कहानी खुद लिखना चाहती हूँ।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
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