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Thursday, August 16, 2012

माँ और बाबूजी

बाबूजी
जब खाना खाने बैठते तब माँ
आसन बिछा कर पाटा लगा देती

बगल में
एक लोटा और गिलास
पानी का भर कर रख देती

बाबूजी
लोटे से हाथ धोकर
शांत भाव से आसन पर बैठ जाते

माँ
थाली में खाना परोस कर
बगल में पंखा झलने बैठ जाती

बाबूजी
मनुहार के साथ खाना खाते हुए
माँ को घर-बाहर की बाते बताते

बाबूजी
खाना खाने के बाद जब  हाथ पौछते
माँ गमछा पकड़ा देती

माँ
जब जूठी थाली उठाती तो उसके चेहरे
पर एक संतोष का भाव होता

माँ
ही समझ पाती उस आनंद को
दुसरा नहीं समझ पाता

आज
भाग दौड़ भरी जिंदगी में कोई इस
आनंद की कल्पना भी नहीं कर सकता।


[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]