Friday, February 26, 2016

तुमने कहा था

एक बार तुमने मुझ से कहा था-
जब मैं चिर निंद्रा में
विलीन हो जाँउगी
तो यह मत समझ लेना कि
मैं तुमसे दूर चली जाऊँगी

मुझे पाने के लिए
अपने दिल के भीतर झाँकना
मैं तुम्हें वहीं मिल जाऊँगी
मैं कहीं भी चली जाऊँ
तुम्हारे दिल में सदा बसी रहूँगी

आज तन्हाई की बेला में
मैंने जैसे ही तुम्हें याद किया
तुम चली आई मेरी यादों में
पलकों को बंद करते ही
तुम समा गई मेरे ख्यालों में

तुमने सच ही कहा था
तुम सदा मेरे दिल में बसी रहोगी
मेरे मन के अदृश्य कोने में
तुम सदा जीवित रहोगी।


 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]



Thursday, February 11, 2016

मेरे जीवन का बसंत

जब तक
तुम साथ थी
बसंत आने पर
फूल ही नहीं खिलते थे
खिल जाते थे हमारे दिल भी

गुनगुनाती थी साँसें
मचलते थे नयन
छा जाती थी मादकता
बसंती बयार कर देती थी
हमारे दिलों को सरोबोर
अपनी महक से

बहती तोआज भी है
बसंती बयार
ले आती है मादकता भी
किसी न किसी अमराई से
करा देती है चुपके से
बसंत के आगमन का आभास

लद जाता है
पलाश भी फूलों से
झरने लगती है मंजरी
भी आम्र कुंजों में
ओढ़ लेती है धरा भी
धानी चुनर सरसों से

लेकिन मेरा दिल अब
नहीं बहलता
खिले हुए फूलों से
अमराइयों की खुशबू से
कोयलों की कूक से

कोहरा छा गया है
मेरे जीवन के बसंत पर
विरह की चादर ने ढक दिया
बसंतोत्सव को सदा-सदा के लिए

जीवन का सब कुछ
चला गया तुम्हारे ही संग
रह गया केवल पतझड़
अब मेरे जीवन के संग।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है ]




Tuesday, February 9, 2016

अब के बिछुड़े फिर न मिलेंगे

लहर सरीखा घुलना-मिलना,अपना रहता था
हवा सरीखा बहते रहना,अपना जीवन था
पलक झपकते छलिया सी,तुम तो चली गई

ऐसा नहीं चाहा था मैंने
बिच राह ऐसे बिछुड़ेंगे
यह नहीं सोचा था मैंने। 

बार-बार मिलना जैसे,उत्सव लगता था
मीठे-मीठे बोल तुम्हारे,अमृत लगता था
गाते-गाते जीवन गीत, तुम तो चली गई

ऐसा नहीं चाहा था मैंने   
  फासले ऐसे भी होंगे
यह नहीं सोचा था मैंने। 

भोला-भोला रूप तुम्हारा,परियों से भी प्यारा था
नथ-चूड़ी और पायल से,खनकता आँगन सारा था
जाने कैसी हवा चली, तुम तो चली गई

ऐसा नहीं चाहा था मैंने   
मुस्कानें मुझसे रूठेगी
 यह नहीं सोचा था मैंने।  

साँसों का निश्वास तुम्हारा, चन्दन जूही सुवास था
आँखों में खिलता रहता, प्यार भरा मधुमास था
मुस्कानें हो गई पराई, तुम जो चली गई 

ऐसा नहीं चाहा था मैंने 
अब के बिछुड़े फिर न मिलेंगे        
यह नहीं सोचा था मैंने।






                                                 [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]




Saturday, February 6, 2016

बच्चे खो रहें हैं अपना बचपन

बच्चे खो रहें हैं अपना बचपन
अब वो नहीं खेलने जाते
मैदानों में, पार्कों में और गलियों में

अब वो नहीं देखने जाते
दशहरे, नागपंचमी और गणगौर
के मेले में

अब वो नहीं खेलते
गिल्ली डंडा, खोखो और कबड्डी
आपस में मिल-झूल कर

अब वो नहीं सुनते
नानी-दादी से किस्से-कहानियाँ
उनके पास बैठ कर

वो उलझ गए हैं
हंगामा, पोगो और टैलेंट हंट
के मायाजाल में

सिमट गया है उनका बचपन
टैब, मोबाइल और कम्प्यूटर
की स्क्रीन में

हरे-भरे मैदानों में खेलते
बच्चों को देखना लगता है अब
सपना ही रह जाएगा

तितलियों के पीछे दौड़ता
बचपन देखना लगता है अब
बीते जमाने की बात रह जाएगा।


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )