बच्चे खो रहें हैं अपना बचपन
अब वो नहीं खेलने जाते
मैदानों में, पार्कों में और गलियों में
अब वो नहीं देखने जाते
दशहरे, नागपंचमी और गणगौर
के मेले में
अब वो नहीं खेलते
गिल्ली डंडा, खोखो और कबड्डी
आपस में मिल-झूल कर
अब वो नहीं सुनते
नानी-दादी से किस्से-कहानियाँ
उनके पास बैठ कर
वो उलझ गए हैं
हंगामा, पोगो और टैलेंट हंट
के मायाजाल में
सिमट गया है उनका बचपन
टैब, मोबाइल और कम्प्यूटर
की स्क्रीन में
हरे-भरे मैदानों में खेलते
बच्चों को देखना लगता है अब
सपना ही रह जाएगा
तितलियों के पीछे दौड़ता
बचपन देखना लगता है अब
बीते जमाने की बात रह जाएगा।
( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )
अब वो नहीं खेलने जाते
मैदानों में, पार्कों में और गलियों में
अब वो नहीं देखने जाते
दशहरे, नागपंचमी और गणगौर
के मेले में
अब वो नहीं खेलते
गिल्ली डंडा, खोखो और कबड्डी
आपस में मिल-झूल कर
अब वो नहीं सुनते
नानी-दादी से किस्से-कहानियाँ
उनके पास बैठ कर
वो उलझ गए हैं
हंगामा, पोगो और टैलेंट हंट
के मायाजाल में
सिमट गया है उनका बचपन
टैब, मोबाइल और कम्प्यूटर
की स्क्रीन में
हरे-भरे मैदानों में खेलते
बच्चों को देखना लगता है अब
सपना ही रह जाएगा
तितलियों के पीछे दौड़ता
बचपन देखना लगता है अब
बीते जमाने की बात रह जाएगा।
( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 07 फरवरी 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteसही कहा आपने । न ये तितलियों के पीछे दौड़ते हैं और न अपने खिलौने बाँट कर खेलते है । सही में बचपन कहीं खो सा गया है ।
ReplyDeleteसही कहा आपने । न ये तितलियों के पीछे दौड़ते हैं और न अपने खिलौने बाँट कर खेलते है । सही में बचपन कहीं खो सा गया है ।
ReplyDeleteआभार आपका।
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