Friday, January 30, 2015

सात क्षणिकायें

दिल में बसी
अंतिम सांस जैसी
तुम्हारी यादें।

मन चाहता
अपने की छुवन
जिंदगी भर।

मन डोलता
सर्द ठंडी रातों में
तुम कहाँ हो ?

छलक आती
पलको से बदली
आँसूं बन के

एक आस जो
गुम हो गयी कहीं
तुम्हारे साथ।

सावन आया
नाचा मन मोर भी
तुम नहीं थी।

अब चाहता
मोहक अनुभूति
बावरा मन।

तारों के संग
कैसे बीती है रात
चाँद से पूछो।

गीत फिर से
थरथराने लगा
मधुमास का।










बरसों बीत गए

बरसों बीत गए

तुलसी 
चौरे पर 
दीया जलाए हुए

पंजो पर बैठ
चूड़ियों से 
पानी पिए हुए

गौधूली बेला में
गायों का 
रम्भाना सुने हुए

चिड़ियों को 
बालू में
नहाते देखे हुए

मोर को 
खेतों में
नाचते देखे हुए

रात में 
तारों का 
नजारा देखे हुए

खेजड़ी की 
छाँव तले
अळगोजा सुने हुए 

सावण की 
तीज पर
झूला झूले हुए

पनघट की 
डगर पर 
पायल को सुने हुए .




Monday, January 26, 2015

जीवन की हकीकत

मेरे दोस्त !
जीवन में तुम पा चुके होंगे
मुझ से अधिक विशिष्ट्ता
लेकिन तुम जीवन को
जी नहीं सके

तुम तो जीवन के असली
मतलब को भी नहीं
समझ सके

जीवन तो मैंने जीया है
अपनी पत्नी के संग 
हँसते हुए जीवन बिताया है 

अपने बच्चों के संग
खेल के मैदान में
समय बिताया है 

जीवन की
मधुर-पूर्ति की खोज में
मैंने सब कुछ पाया है

प्यार-मुहब्बत
हँसी-ख़ुशी
सब को मैंने जिया है

तुम्हारे लिए
ये सब सपना रहा
तुम तो कुछ भी नहीं कर सके 

अपने जीवन में 
खुशियाँ तलाश ने तक का
समय भी नहीं निकाल सके

मेरे दोस्त!
जब तक तुम इस बात को
समझोगे तब तक
बहुत देर हो चुकी होगी

रेत बँधी
मुट्ठी सी यह जिंदगी
रीत चुकी होगी।

Sunday, January 25, 2015

अमरलोक के नज़ारे

उस दिन गया था
पिके फिल्म देखने
तारामणि - धर्मचन्द के संग 
टिकटे एडवांस में बुक थी

मैंने टिकट खिड़की पर 
मोबाईल पर बुकिंग दिखाई  
काउंटर बैठे व्येक्ती ने
मुझे तीन टिकट दे दिए

मैंने उससे कहा-
हमारे चार टिकट है
उसने कम्प्यूटर देख कहा -
सर आपके तीन ही टिकट बुक है

अचानक मुझे ख़याल आया
अरे हाँ ! अब तो हम तीन ही है
चौथी तो साथ देने अब कभी
आयेगी भी नहीं

वो तो चली गई 
हम सब को छोड़कर 
अमरलोक के नज़ारे देखने। 


अनुभूति की अभिव्यक्ति

      मेरे मन में 
जब भी भाव आते हैं 
मैं लिखता रहता हूँ। 

अभूतपूर्व या
सुन्दर लिखने की
चेष्टा नहीं करता हूँ। 

लिखते रहने से 
मन को थोड़ा 
शुकून मिलता है। 

एकाकी जीवन को 
थोड़ा सम्बल 
मिलता है। 

मेरा लिखा 
मेरे बाद भी रहेगा 
ऐसा भी लगता है।  

अतीत की स्मृतियाँ 
लिखते रहने से 
ताजा हो जाती है। 

यादों के बीच
बनती रहती है मन के 
भावों की स्तुति। 

कलम के सहारे
  करता रहता हूँ 
अनुभूति की अभिव्यक्ति । 


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )






Sunday, January 18, 2015

कैसे जीवूं बिना तुम्हारे

साथ मेरा बचपन का छुटा
मेरे मन का मीत जो रूठा
  जीवन के मिट गए नज़ारे
     कैसे जीवूं  बिना तुम्हारे।

 सुकून नहीं अब  दिल को मेरे                                 
दुःख-दर्द बन गए साथी मेरे                              
जीवन के सब सपने बिखरे                             
 कैसे  जीवूं  बिना  तुम्हारे।                          

    विरही मन को दर्द रुलाए 
    याद तुम्हारी जिया जलाए
    बहते आँखों से अश्रु पनारे
        कैसे जीवूं  बिना तुम्हारे।

  जब भी याद तुम्हारी आए                       
अंतस की पीड़ा मुस्काए                   
जीवन के बुझ गए सितारे                    
कैसे जीवूं बिना तुम्हारे।               
  मेरे  सारे  स्वप्न  खो  गए
मन वीणा के तार टूट गए 
 छूट गए अब सभी सहारे 
    कैसे जीवूं बिना तुम्हारे। 


     [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]

Saturday, January 17, 2015

तुम याद आओगी

    गंगा दशहरा पर हम हरिद्वार जाते थे साथ-साथ
अब कभी हरिद्वार जाऊंगा तो तुम याद आओगी।

          दुनियाँ को घूम कर देखा था हम ने साथ-साथ
            अब कभी घूमने जाऊंगा तो तुम याद आओगी।

छुट्टियों में गांव घूमने जाते थे हम साथ-साथ
अब कभी गाँव जाऊंगा तो तुम याद आओगी।

पिछले सावन खेत में भीगे थे हम साथ-साथ
 अब जब  खेत जाऊंगा तो तुम याद आओगी।

शादी की स्वर्ण-जयंती मनाई थी साथ-साथ
अगली साल गिरह पर तुम याद आओगी।

जीवन के राह-सफर में हम चले थे साथ-साथ
  अब जीवन की सुनी राहों में तुम याद आओगी।



  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Wednesday, January 14, 2015

हेत रा हजार रंग हुवै (राजस्थानी कविता)

कियाँ भुलूँ टाबर पणा री बातां
जद हैत रे रूंख हेठै बैठ'र
आपा करता ग़ुरबत 

घड़ी भर कौनी आवड़तो
आपाने एक दूजा'र बिना 

चाँद स्यूं फुटरो लागतो 
थारो उणियारों 
अर मिसरी स्यूं मीठी  
लागती थारी बातां 

रात बीत ज्यावंती 
पण नीवड़ती कौनी 
आपणै मनड़ै री बातां

थारी झिलमिल
तारा आळी ओढणी अर
तिरछी निजरां स्यूं झांकणो
ओज्युं याद आवै

कठै गई थारी बा परीत 
अर कठै गई बे बातां
ओ आंतरो कियां पसरग्यो 
चाणचूक आपण बीच 

कदै नी सोची ही के इण भांत 
आंतरो पड़ ज्यावालो
आपां दोन्या रै बीच।

[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]



Wednesday, January 7, 2015

तुम बसी हो मेरी यादों में

तुम्हारे लौट आने की
पगध्वनि सुनने मेरे कान
बिना सोये जागते रहते हैं

विरह के दिन
रात-रात भर जाग कर
दिल का दर्द बाँटते रहते हैं 

चाँद सितारों की दुनियाँ से
तुम्हारे लौटने के इन्तजार में
दिल तड़फता रहता है

थक गयी मेरी आँखें
तुम्हारे दीदार के लिए
दिल तरसता रहता  है 

यादें नहीं छोडती साथ
कराती रहती है अहसास
तन्हाई के दर्द का

दिल के भावों को
 लिखता रहता हूँ ताकि तुम्हें
अहसास हो मेरे दिले-दर्द का

फासले लम्बे हो गए 
लेकिन आज भी बसी हो
मेरे दिल में

नज़रों से भले ही दूर हो
लेकिन आज भी आती हो
मेरी यादों में। 


[ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]




क्षमा अवश्य माँगूगा

जब भी घड़ी दो घड़ी
फ़ुरसत में होता हूँ
घेर लेती हैं मुझे तुम्हारी यादें

कानों में गूँजने लगती है
तुम्हारी बातें और
आवाजें

एक चलचित्र की तरह
मानस पटल पर
छा जाती है तुम्हारी बातें

शब्द नहीं मिलते
लिखने उन यादों को
जीता रहता हूँ अहसासों में

आँखों से झरते रहते हैं आँसू
दिल से निकलती रहती है
टीस भरी आहें

काश! अंत समय
मैं तुम्हारे पास रहता
दो बाते तो कर ही लेता


तुम्हें भी संतोष रहता
कि मैं अंत समय तक
तुम्हारे साथ था

जब भी मिलूंगा
तुमसे इसके लिए
क्षमा अवश्य माँगूंगा।


  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]






Monday, January 5, 2015

हर कोई तुमसा क्यों नहीं होता

तुम्हारे बिछुड़ते ही मेरी उम्र ढलने लग गई                                                                                                     
 तुम रहती तो उम्र  का अहसास नहीं होता।      

 मेरे सुरमई धुप वाले दिनों का अंत हो गया          
                         मुझ से प्यार भरे गीतों का सृजन नहीं होता।                                

   तुम्हारे विछोह का दर्द रातों रुलाता है मुझे          
भीगता रहता है तकिया पर दीदार नहीं होता।              

  बहारों के मौसम में तुम छोड़ कर चली गई       
     तुम रहती तो जीवन में पतझड़ नहीं होता।         

 तुम्हारे जाते ही खुशियों की शाम ढल गई        
 आँखों से बहते हैं अश्रु दर्द कम नहीं होता।            

एकाकी जीवन जीना बड़ा कठिन लगता है    
 अब मुझे से तुम्हारा वियोग सहन नहीं होता।    
          
तुम्हारा निश्छल प्रेम मुझे सदा याद रहेगा         
 सोचता हूँ हर कोई तुमसा क्यों नहीं होता।          




  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]