Wednesday, January 7, 2015

क्षमा अवश्य माँगूगा

जब भी घड़ी दो घड़ी
फ़ुरसत में होता हूँ
घेर लेती हैं मुझे तुम्हारी यादें

कानों में गूँजने लगती है
तुम्हारी बातें और
आवाजें

एक चलचित्र की तरह
मानस पटल पर
छा जाती है तुम्हारी बातें

शब्द नहीं मिलते
लिखने उन यादों को
जीता रहता हूँ अहसासों में

आँखों से झरते रहते हैं आँसू
दिल से निकलती रहती है
टीस भरी आहें

काश! अंत समय
मैं तुम्हारे पास रहता
दो बाते तो कर ही लेता


तुम्हें भी संतोष रहता
कि मैं अंत समय तक
तुम्हारे साथ था

जब भी मिलूंगा
तुमसे इसके लिए
क्षमा अवश्य माँगूंगा।


  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]






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