Monday, October 31, 2011

शरद पूर्णिमा

शरद  पूर्णिमा की
चांदनी रात

गीता भवन का
गंगा किनारा

कल-कल करता
गंगा का जल 

लहरें  किनारे से टकरा
टकरा कर लौट रही हैं

मै किनारे पर बंधी 
नौका में लैट जाता हूँ

आसमान में चमकते सितारे 
आँखों में चमचमाते हैं   

जल के संगीत पर
भावना की तरह तैरने लगता हूँ 

गंगा होठों पर बसती जाती है 
और मैं गुनगुनाने लगता हूँ

नैसर्गिक सौन्दर्य को मन की
आँखों से पीने लगता हूँ।

धरती के स्वर्गाश्रम में
स्वर्ग का आनंद लेने लगता हूँ। 


गीता भवन
२० जुलाई, २०१०
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )

Thursday, October 20, 2011

भूख

एक बच्चा
जख्मों से भरा हुआ
मैले कपड़े, नंगे पाँव
माथे में जूँओ को खुजलाता
बासी जूठे और गंदे खाने को
दोनों हाथो से बिचेरते
हुए खा रहा है

जिसे अभी -अभी
पार्टी ख़त्म होने पर
मेजपोशों से उठा कर
सड़क पर लाकर फेंका है

पास ही
एक कुते का पिल्ला
उसी खाने को पूरे जोर से
बिचेरते हुए खा रहा है 

दोनों अपनी अपनी
सुधा मिटाने में लगे हुए हैं
बीच-बीच में दोनों एक 
की तरफ देख लेते हैं 

उदास शाम
डरावनी रात और
पेट की भूख ने
दोनों को
एक सूत्र में बाँध दिया है।

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )


Monday, October 17, 2011

कुछ बात करो

आओ बैठो
कुछ बात करो
अपना हाथ मेरे हाथ में दो 

कुछ मैं कहूँ
कुछ तुम कहो
आओ बैठो कुछ बात करो

ये शामें, ये घड़ियाँ
ये लम्हें, बीत जायेगें  
कुछ पल के ही तो मेहमान है 

क्या पता
किस मोड़ पर जिन्दगी की 
शाम ढल जाए और
ये रंगों का मेला उठ जाए ?

झगड़े -समझोतें और 
मनुहारों का जो जीवन हमने जिया 
आओ उन लम्हों को एक बार 
फिर से ताजा करें

हमने जो प्यार, ममता 
अपनापन एक दूजे को बाँटा
आओ उनकी स्मृति की वादियों
में फिर से खो जाए

हँस-हँस कर
एक दूजे को गुदगुदा कर 
हमने जो जीवन जिया 
आओ उस अमृत धारा को 
फिर से बरसाएँ

गर्म साँसों की महक
और मधुर शरारतों का जीवन 
आओ एक बार फिर से जीऐं 

साथ-साथ बैठ कर
हाथों में हाथ लेकर
आओ कुछ बात करें 

कुछ मैं कहूँ
कुछ तुम कहो
आओ कुछ बात करें। 

  कोलकता
१६ अक्टुम्बर ,२०११

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )

 

Thursday, October 13, 2011

बसंत



बसंत गावों में
आज भी आता है और
पूरे सबाब के साथ आता है  

सरसों आज भी गदराती है
आम  के पेड़ आज भी बौरातें हैं
बागों में कोयल आज भी गाती है

भंवरें आज भी गुनगुनाते  हैं
मोर बागो में आज  भी नाचते हैं   
पलास आज भी दहकता है

बसंत गावों में आज भी
पुरे सबाब के साथ आता है  
लेकिन महानगरों में बसंत
अब इन रंगों में नहीं आता है

कंकरीट के जंगल
बनने के बाद बसंत यहाँ
अब केवल बसंत पंचमी  के
दिन ही आता है

और शाम होते-होते    
रिक्शा खींचते-खींचते 
पसीने से तर-बतर  मंगलू की  
चरमराती छाती से
धौंकनी की तरह निकलती 
गरम-साँसों में मुरझा जाता है। 


कोलकत्ता
१४ अक्टुम्बर, 2011

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Tuesday, October 11, 2011

बेटी का बाप

एक बेटी का बाप
अनेक मजबूरियों के साथ
जीवन जीता है

बहुत कुछ करने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
कुछ नहीं कर पाने की
मजबूरी के साथ जीवन जीता है 

जनक ने अपनी बेटी के लिए
स्वयंवर आयोजित किया
कि सीता को योग्य वर मिले और
वो सुखी जीवन जी सके

लेकिन सीता को
जंगलो में भटकना पड़ा
सामर्थ्यवान होते हुए भी
जनक कुछ नहीं कर सके 

आज भी
बेटी का बाप
बेटी के सुखी जीवन के लिए
अपना सब कुछ दाँव पर लगाता है 

लेकिन बेटी को
आज भी समाज में
सब कुछ सहना और
झेलना पड़ता है 

पुरखों के
जमाने से चले आ रहे 
समाज के जंग लगे दस्तूरों को
आज भी निभाना पड़ता है

बेटी का बाप
बहुत कुछ कर सकने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
कुछ नहीं कर पाने की
मज़बूरी के साथ जीता है। 


कोलकता
१० अक्टूम्बर २०११
 (यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Friday, October 7, 2011

रंगीलो राजस्थान ( राजस्थानी कविता )


रंग रंगीलो सबस्यूं प्यारो म्हारो राजस्थान जी

माथे बोर, नाक में नथनी, नोसर हार गलै में जी   
झाला, झुमरी, टीडी भळको, हाथा में हथफूल जी
टूसी, बिंदी, बोर, सांकळी, कर्ण फूल काना में जी
कंदोरो, बाजूबंद सोवै, रुण-झुण बाजे पायल जी    

रंग रंगीलो सबस्यूं प्यारो म्हारो राजस्थान जी  

रसमलाई, राजभोग औ कलाकंद, खुरमाणी जी
कतली, चमचम, चंद्रकला औ मीठी बालूशाही जी 
रसगुल्ला, गुलाब जामुन औ प्यारी खीर-जलेबी जी
दाल चूरमो, घी और बाटी  सगला रे मन भावे जी

रंग रंगीलो सबसे प्यारो म्हारो राजस्थान जी 

कांजी बड़ा दाल रो सीरो, केर-सांगरी साग जी
मोगर, पापड़, दही बड़ा औ नमकीन गट्टा भात जी
तली ग्वारफली ओ पापड़, केरिया रो अचार जी
घणे चाव से बणे रसोई, कर मनवार जिमावे जी

रंग रंगीलो सबस्यूं प्यारो म्हारो राजस्थान जी 

काली कळायण ऊमटे जद, बोलण लागे मौर जी
बिरखा रे आवण री बेला, चिड़ी नहावै रेत जी
खड़ी खेत रे बीच मिजाजण, गावै कजरी गीत जी
बादीळो घर आसी कामण, मेडी उड़ावे काग जी 

रंग रंगीलो सबस्यूं प्यारो म्हारो राजस्थान जी ।

कोलकत्ता
१४ जून,२०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )