Monday, April 30, 2018

तुम बरखा बन चली आना।

आज बहती पुरबा ने 
हौले से मेरे कान में कहा-
क्यों उदास बैठे हो ?

समेटो बिखरे पलों को फिर से
सहेजो अपनी बीती यादों को फिर से 
याद करो संग-सफर की बातें
बेहद मीठी होती है यादें

मैं जैसे ही पुरानी यादों में डूबा
तुम चली आई बरखा बन मेरे पास
तुम्हारी यादों की रिमझिम ने
भीगा दिया मेरा तन-मन-प्राण

मैं भूल गया तन्हाई
डूबा यादों की गहराई
तुम कल फिर से आना
इसी तरह तन-मन भिगोना 
मैं धरा बन प्रतीक्षारत रहूंगा
तुम बरखा बन चली आना।


यादों की नाव

मेरी स्मृतियों में
आज भी ताजा है वे दिन
जब ढलती सांझ में
गंगा किनारे बंधी नाव में
जाकर बैठ जाते थे

गंगा की लहरों पर
हिचकोले खाती नाव में
शीतल  हवाओं के झोंके
मन को शकुन देते थे

कितनी बातें करते थे हम
अंत नहीं था बातों का
रात घिर आती लेकिन
बातें खतम नहीं होती थी

गीता भवन के
दरवाजे बंद होने की
घंटी सुन कर ही हम
लौटते थे अपने कमरे में

आज जब भी
तुम्हारी याद आती है
आँखों में उतर आती है गंगा
चल पड़ती है यादों की नाव।



 [ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]

Tuesday, April 17, 2018

पांच वर्ष की पोती आयशा

मेरी पांच वर्ष की पोती
आयशा
नहीं जानती
चाँद, तारों और परियों
के बारे में

उसने नहीं देखा
कभी अम्बर में
आकाश गंगा को
तारों की बरात को
वह नहीं जानती चाँद में
सूत कातती  बुढ़िया को

उसने नहीं सुनी
परियों की कहानियाँ
जो उतर कर आती है
आसमान से  धरती पर

जिनके उड़ने के लिए
लगे रहते है सफ़ेद पंख
हाथ में जिनके रहती है
सुनहरी जादू की छड़ी

आयशा के पास
ढेरों खिलोनें हैं
पेंटिंग के लिए कलर्स है
अल्फाबेट की पुस्तकें हैं

अब तो वो खेलने लगी है
अपनी मम्मी के मोबाइल्स से
शिनचैन, नोबिता जैसे
कार्टूनों से।

उसे नहीं मालूम
चाँद, सितारें और परियों की
दुनियां के बारे में।




Monday, April 16, 2018

जितना दिया है उतना ही तो मिलेगा

आज बेटे की
शादी की सालगिरह है
बेटे ने बाप के पास आकर
प्रणाम करने की
जरुरत नहीं समझी
बहु ने भी रास्ते चलते
प्रणाम कर अपना
फर्ज निभा लिया है

शाम को होटल में
डिनर और केक काटाने का
प्रोग्राम बना
बेटे ने अपने दोस्त और
उसकी बहु को बुलाया
मुंबई से आई विजि को भी
आमंत्रित किया

लेकिन नहीं कहाँ
बेटे ने बाप को कि
आज चलना होटल में
सभी साथ खाना खाएंगे
और केक काटेंगे

बाप अकेला घर पर था
सोच रहा था कि क्या कल
इसके बेटे भी इसके साथ
यही व्यवहार करेंगे ?
क्या उसे भी इतना ही दर्द होगा
जितना आज मुझे हो रहा है ?

लेकिन दूसरे ही क्षण
बाप ने माथे को झटक दिया
नहीं नहीं उन्हें इतना दर्द नहीं होगा
क्योंकि उन्होंने जितना दिया है
उतना ही तो मिलेगा।


Tuesday, April 10, 2018

देखो प्यारा बसंत आया

देखो प्यारा बसंत आया

सर्दी की हो गई विदाई
सौरभ लेकर हवा आई
बादलों से ब्योम  छाया
देखो प्यारा बसंत आया

बागों में कोयल कुहकी
बौरों से बगिया महकी
भंवरा फूलों से कह आया
देखो प्यारा बसंत आया

पिली सरसों खेत सजे
नव पल्लव से पेड़ सजे
फूलों-पत्तों में रंग छाया
देखो प्यारा बसंत आया

धरती का आँगन महका
गौरी बाँहों में प्यार सजा
प्रणय का मौसम आया
देखो प्यारा बसंत आया ।

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Saturday, April 7, 2018

ऊखल, मूसल और घट्टी

गाँव के घर के आँगन में
उपेक्षित पड़ा है ऊखल 
पास पड़ा है मूसल 

रसोई के बरामदे में
एक कोने में
उपेक्षित पड़ी है घट्टी

कभी घर की औरतें
कूटती थी खिचड़ा
ऊखल-मूसल से

मुँह अँधेरे उठ कर
पाँच सेर बाजरी 
पीसती थी घट्टी से

अब बड़े शहरों में 
इन्हें दिखाया जाता है
"पधारो म्हारे देश"
जैसे प्रोग्रामों में

ताकि आज की पीढ़ी
एक बार देख सके
लुप्त होती धरोहर को

अनुभव कर सके
अपने पूर्वजों के
कठिन परिश्रम को।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )



विरह वेदना

जुदा हो कर भी वो मेरे जहन में बसी है
विरह वेदना उसकी आज भी सत्ता रही है।

फूल सा दिल कुम्भला गया वो चली गई 
आँखें आज भी उसकी राह देख रही है।

हवा में उसके गुजरे पलों के नगमें घुले हैं
उसकी गुजरी हुई साँसें मिलने आ रही है। 

याद करता नहीं फिर भी, याद आ रही है
उसकी याद में, नयनों से प्रीत बह रही है।

वो तो आज भी मेरी सांसों संग बसी हुई है 
साँसों से ज्यादा तो उसकी यादें आ रही है। 

जीवन की संध्या में, सारी खुशियां खो गई
यादों की पीड़ा मन्दाकिनी सी बह रही है।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]