Sunday, July 31, 2011

मत बदलो

ग्वाल- बालों को अलगोजे पर
अपने लोक गीत गाने दो
मत उनके होठों पर
नए तराने सजाओ 

पनघट पर जाती गौरियों को
घूँघट से ही झांकने दो
मत उनको पश्चिमि
रंग में सजाओ 

मेहमान का स्वागत
छाछ और मट्ठे से करो
मत उनको कोका कोला
   पिलाकर स्वास्थ्य नष्ट  करो 

  बुड्ढे माँ- बाप की सेवा   
घर पर रख कर ही करो
 वृद्धाश्रम भेज कर अपना
 भविष्य मत बिगाड़ो

पेड़-पौधों और पर्यावरण
की रक्षा करो
जंगलों को काट कर 
  अपना जीवन मत बिगाड़ो।

  कोलकत्ता                                                                                                                                            
३१ जुलाई, २०११

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Tuesday, July 26, 2011

मेरी माँ

माँ
जिसके उच्चारण मात्र
से ही मुँह भर जाता है 

जिससे मांगने के लिए कभी
शब्दों की जरुरत नहीं पड़ती है

जो हरपल घर का पूरा
ख्याल रखती है

वो माँ
अचानक हम सब को
छोड़ कर चली गयी

माँ के जाने के बाद 
कँही कुछ नहीं बदला है 
केवल माँ का कमरा खाली हो गया है 

आज जब भी
माँ की स्मृति आती है
आँखों से अश्रुधारा बहने लग जाती है 

जब मै छोटा था,
पढ़ने दूर शहर में जाता था
माँ अश्रुपूर्ण नेत्रों से दूर तलक
पहुंचाने जाती थी

छुट्टियों में जब
घरआता तब माँ की
आँखों में ख़ुशी के अश्रु
टपक पड़ते थे 

कलकत्ते में
जब तक रात को
घर नहीं पहुँच जाता
माँ खिड़की के पास खड़ी
राह देखती रहती

चाहे जितनी रात हो जाती
माँ की आँखे राह से
नहीं हटती 

माँ के अचानक
चले जाने का
वह अकल्पित दृश्य
बार-बार मेरी आँखों के
सामने आ जाता है

मै क्या करूँ
मन का भी अजब हाल है,
रोना नहीं चाहता फिर भी
आँखों से अश्रु  टपक ही पड़ते है। 


कोलकत्ता
२६ जुलाई, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Sunday, July 24, 2011

सभ्य और असभ्य

तुम असभ्य हो क्योंकि
तुम गाँवों में रहते हो
तुम नंगे पाँव चलते हो
मिट्टी में काम करते हो
कम पढ़े -लिखे हो
इसलिए असभ्य हो 

मै सभ्य हूँ क्योंकि
मै  शहर में रहता हूँ 
मैं गाड़ी में चलता हूँ
वातानुकूल कमरों में रहता हूँ
ज्यादा पढ़ा-लिखा हूँ
इसलिए सभ्य हूँ 

अपने को सभ्य कहने वाले
काश ! यह समझ पाते कि 
वो किस के बल पर अपने को 
सभ्य कह रहे हैं 

ये ऊँची-ऊँची अट्टालिकाए 
ये कल- कारखानें 
ये खेत और खलिहान 
ये सब इनके भरोसे हैं 
जिनको तुम असभ्य कह रहे हो

आज सभ्यता का दम
तुम इनके सहारे ही
भर रहे हो

यदि चाहते हो खुश रहना 
तो करो इनका विकास
संवारो इनकी जिंदगी
उठावो इनको अपने बराबर। 

 कोलकत्ता   
२४ जुलाई२०११
\
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Thursday, July 21, 2011

एक से दस तक

एक देगची
चावल दो
नहीं पके
तीन दिन वो

चार कबूतरों
को बुलवाया
पाँच दिनों तक
पानी भरवाया

छः चिडियाँ 
बिनने को आई 
सात बत्तकों से
पंखा  झलवाया

आठ चूल्हों
पर उसे चढ़ाया 
नौ मन लकड़ी
हाथी लाया

देख रहे थे
दस -दस बच्चे
फिर भी चावल
रह गए कच्चे

कृष्णा ने सबको
को समझाया 
खेल-खेल  में
पाठ पढ़ाया। 



कोलकत्ता
२१ जुलाई, २०११


[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]

बिरखा आई री (राजस्थानी कविता)



बादीलो बोल्यो आज प्यार से
बिरखा आई री 
हरियाळी छा गयी सखी री
सावण आयो री 

बादल छाया आसमान में
धरती महकी री 
मौर-पपीहा बोलण लाग्या
मनड़ो हरक्यो री 
लसकरियो बोल्यो आज प्यार से
बिरखा आई री

भरग्या सगला ताल-तलैया
परनाळा चाल्या री 
कोयल-दादुर बोलण लाग्या
शुभ दिन आयो री 
छैळो बोल्यो आज प्यार से
बिरखा आई री

हळिया ने हाथा में पकड़्या
परण्येा खेता चाल्यो री 
मिरगानैणी कजळी गावै
मन हुलसायो री 
पीवजी बोल्या आज प्यार से
पाणी बरस्यो री 

इन्द्रधणक ऱे रंग रंगी  मैं 
पायल रुनझुन बोले री 
ऊँचे डालै हींड़ो घाल्यो
सखियाँ झाळा देवै री 
रसियो बोल्यो आज प्यार से
सावण आयो री। 


                                                                          कोलकाता                                                                                                     २१ जुलाई, २०११                      
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Thursday, July 14, 2011

मत छीनो बचपन



एक समय था जब
एक पाटी और एक बस्ता
हाथ में लेकर बच्चे स्कूल चले जाते थे

पढ़ने के बाद हरे-भरे
मैदानों में खरगोशों की तरह
कुलाचें भरते हुए खेला करते थे 

गाँव के साफ सुथरे
रास्तो पर नंगे पाँव
धूल उड़ाते, उधम मचाते दौड़ा करते थे

तालाब के किनारे
कपड़े उतार कर सहज भाव से
सामुहिक स्नान कर लिया करते थे

आज इन नन्हें-मुन्ने
बच्चों से उनका भोला-भाला
बचपन छीना जा रहा है

उंनीदी आँखों में ही
उनकी पीठ पर दस किलो का
 बस्ता लाद दिया जाता है

पुस्तकों के बोझ तले
दबता मासूम, बचपन में बुढ़ापे
  का अहसास दिलाता है 

शाम ढले बच्चा जब
वापस आता है तब तक
   वो थक कर चूर हो जाता है

  खेलना तो दूर
वो आते ही निढाल हो कर
 बिस्तर पर गिर जाता है 

आज हम खुद
अपने बच्चों का बचपन
 घरों से निर्वासित कर रहे हैं

मत छीनो इनका बचपन
उड़ने दो इन्हें खुले आसमान में
यह बचपन है फिर लौट कर
नहीं आयेगा।
   

कोलकत्ता
१४ जुलाई, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Saturday, July 2, 2011

आओ गीत गायें

कलकल करते झरनों में गीत है
गड़-गड़ करते बादलो में गीत है
           पंछियों की आवाज में गीत है
           लहलहाती फसलों में  गीत है

घाटियों की सांय-सांय में गीत है
नदियों   के  निनाद में  गीत   है
           समुद्र   के  जलघोष में गीत  है
           सनसनाती  हवाओं  में गीत  है
 
भंवरों   के गुंजन में   गीत   है
चिडियों के चहचहाने में गीत है                              
           पपीहा के  बोलने   में   गीत है
           कोयल के मीठे स्वर में गीत है

प्रकृति में सर्वत्र गीत ही गीत है
लेकिन   हमारे  गीत कहाँ  है ?
           हम  क्यों नहीं गीत गा रहे हैं ?
           हमारी जिन्दगी के गीत कहां हैं ?
   
लोकगीत और भक्ति गीत कहाँ हैं ?
बाल गीत और खेल गीत कहाँ हैं ?
           शौहर गीत और गाथा गीत कहाँ हैं ?
           मेहंदी गीत और मेले के गीत कहाँ हैं ?

जन्म  का  जलवा गीत कहाँ हैं ?
विवाह के विदाई गीतगीत कहाँ हैं ?
           सावन के बरखा गीत कहाँ हैं ?
           चैत्र  मास चैत्रा गीत कहाँ हैं ?

तीज और होली के गीत कहाँ हैं ?
गणगौर और झूलों के गीत कहाँ हैं ?
           चरखा और चक्की के गीत कहाँ हैं ?
           कजली और लावनी के गीत कहाँ हैं ?

प्रकृति अपने हर रंग में गा रही है 
हमें भी गाने के लिए  कह रही है 
           आओ हम फिर से अपने गीत गायें 
           जिन्दगी को गीतों के साथ गुनगुनायें।



कोलकत्ता
२ जुलाई, २०११


(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

देर कितनी लगती है.






मयखाने में जाकर जाम गले लगाऐ 
पैर लड़खड़ाने में देर कितनी लगती है ?

विश्वास के आँगन में शक के पांव पड़ जाए 
चूड़ियां बिखरने में देर कितनी लगती  है ?

जीवन के चिराग पर गरूर करना
हवा का झोंका आने में देर कितनी लगती है ?

बाली उम्र की  थोड़ी सी नादानी
पाँव फिसलने में देर कितनी लगती है ?

कार्य के प्रति इच्छा और समर्पण
सफलता मिलने में देर कितनी लगती है ?

समुन्दर की चाहत पर बूंद को
नदी बनने में देर कितनी लगती है ?

ध्रुव और प्रहलाद जैसी भक्ति
प्रभु को आने में देर कितनी लगती है ?



कोलकत्ता 
२ जुलाई, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )