Thursday, July 14, 2011

मत छीनो बचपन



एक समय था जब
एक पाटी और एक बस्ता
हाथ में लेकर बच्चे स्कूल चले जाते थे

पढ़ने के बाद हरे-भरे
मैदानों में खरगोशों की तरह
कुलाचें भरते हुए खेला करते थे 

गाँव के साफ सुथरे
रास्तो पर नंगे पाँव
धूल उड़ाते, उधम मचाते दौड़ा करते थे

तालाब के किनारे
कपड़े उतार कर सहज भाव से
सामुहिक स्नान कर लिया करते थे

आज इन नन्हें-मुन्ने
बच्चों से उनका भोला-भाला
बचपन छीना जा रहा है

उंनीदी आँखों में ही
उनकी पीठ पर दस किलो का
 बस्ता लाद दिया जाता है

पुस्तकों के बोझ तले
दबता मासूम, बचपन में बुढ़ापे
  का अहसास दिलाता है 

शाम ढले बच्चा जब
वापस आता है तब तक
   वो थक कर चूर हो जाता है

  खेलना तो दूर
वो आते ही निढाल हो कर
 बिस्तर पर गिर जाता है 

आज हम खुद
अपने बच्चों का बचपन
 घरों से निर्वासित कर रहे हैं

मत छीनो इनका बचपन
उड़ने दो इन्हें खुले आसमान में
यह बचपन है फिर लौट कर
नहीं आयेगा।
   

कोलकत्ता
१४ जुलाई, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

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