Sunday, July 24, 2011

सभ्य और असभ्य

तुम असभ्य हो क्योंकि
तुम गाँवों में रहते हो
तुम नंगे पाँव चलते हो
मिट्टी में काम करते हो
कम पढ़े -लिखे हो
इसलिए असभ्य हो 

मै सभ्य हूँ क्योंकि
मै  शहर में रहता हूँ 
मैं गाड़ी में चलता हूँ
वातानुकूल कमरों में रहता हूँ
ज्यादा पढ़ा-लिखा हूँ
इसलिए सभ्य हूँ 

अपने को सभ्य कहने वाले
काश ! यह समझ पाते कि 
वो किस के बल पर अपने को 
सभ्य कह रहे हैं 

ये ऊँची-ऊँची अट्टालिकाए 
ये कल- कारखानें 
ये खेत और खलिहान 
ये सब इनके भरोसे हैं 
जिनको तुम असभ्य कह रहे हो

आज सभ्यता का दम
तुम इनके सहारे ही
भर रहे हो

यदि चाहते हो खुश रहना 
तो करो इनका विकास
संवारो इनकी जिंदगी
उठावो इनको अपने बराबर। 

 कोलकत्ता   
२४ जुलाई२०११
\
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

No comments:

Post a Comment