तुम असभ्य हो क्योंकि
तुम गाँवों में रहते हो
तुम गाँवों में रहते हो
तुम नंगे पाँव चलते हो
मिट्टी में काम करते हो
कम पढ़े -लिखे हो
इसलिए असभ्य हो
इसलिए असभ्य हो
मै सभ्य हूँ क्योंकि
मै शहर में रहता हूँ
मै शहर में रहता हूँ
मैं गाड़ी में चलता हूँ
वातानुकूल कमरों में रहता हूँ
ज्यादा पढ़ा-लिखा हूँ
इसलिए सभ्य हूँ
इसलिए सभ्य हूँ
अपने को सभ्य कहने वाले
काश ! यह समझ पाते कि
वो किस के बल पर अपने को
सभ्य कह रहे हैं
ये ऊँची-ऊँची अट्टालिकाए
ये कल- कारखानें
ये खेत और खलिहान
ये सब इनके भरोसे हैं
ये सब इनके भरोसे हैं
जिनको तुम असभ्य कह रहे हो
आज सभ्यता का दम
तुम इनके सहारे ही
भर रहे हो
आज सभ्यता का दम
तुम इनके सहारे ही
भर रहे हो
यदि चाहते हो खुश रहना
तो करो इनका विकास
संवारो इनकी जिंदगी
उठावो इनको अपने बराबर।
कोलकत्ता
२४ जुलाई२०११ \
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
No comments:
Post a Comment