Saturday, July 28, 2018

मानव की मनुजता

                                                                       मैंने तुमको देखा 
                                                                            बुजुर्ग की 
                                                                         लाठी बनते हुए  

मैंने तुमको देखा 
घायल को
  अस्पताल पहुँचाते हुए 

मैंने तुमको देखा 
भूखे को
 रोटी खिलाते हुए

मैंने तुमको देखा 
प्यासे को
पानी पिलाते हुए  

मैंने तुमको देखा 
भटके को 
राह दिखाते हुए

मैंने तुमको देखा 
 रोते का
आँसूं पोंछते हुए 

मैं तुम्हारा नाम
इतिहास के पन्नों में
स्वर्ण अक्षरों में लिखूँगा 

ताकि आने वाली पीढ़ी
देख सके
मानव की मनुजता।  



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Wednesday, July 25, 2018

प्यार भरो बच्चों के दिल में

प्यार भरो बच्चों के दिल में
सावन बन बरसेगें वो 

पढ़ा लिखा विद्वान बनाओ
रोशन नाम करेंगे वो

मीठी वाणी इनसे बोलो
हँस-हँस बात करेंगे वो

दिल में इनके दीप जलाओं
रोशन राह करेंगे वो 

गीत भरो तन-मन में इनके
चहक-चहक गाएंगे वो

सच्चे सुख की राह दिखाओ
धरती स्वर्ग बनाएंगे वो

प्यार से इनको गले लगाओ 
नेह सुधा बरसाएंगे वो

नन्द यशोदा बन कर पालो
बन कर कृष्ण दिखाएंगे वो।



[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]







































































































































































































Tuesday, July 24, 2018

प्रेसबी की नर्स "रोज "

प्रेसबी की नर्स  "रोज "
मनीष से बातें कर रही थी
बगल मे खड़ा डॉक्टर
काफ़ी देर से सुन रहा था

उसने रोज से पूछा -
क्या तुम इसे जानती हो ?
रोज तपाक से बोली -हाँ
यह मेरा छोटा भाई है

मै थोड़ी ज्यादा गौरी हूँ 
ये थोड़ा कम गौरा है
लेकिन मैं भी अब
इसकी तरह होने लग गयी हूँ

थोड़े दिनों में 
हम दोनो का रंग
एक जैसा हो जाएगा
फिर तुम नही पूछोगे

और उसी के साथ "रोज"का
चिर परिचित हँसी का
जोरदार ठहाका
डॉक्टर झेंप कर हँसने लगा। 
                   

[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]





















Monday, July 23, 2018

जीवन चलता है

कहीं पर बड़े - बड़े भंडारे हो रहे हैं     
         कँही पर बच्चे भूखे सो रहे हैं       
 कोई फाईव स्टार में पार्टी दे रहा है       
कोई कचरे के ढेर को बिन रहा है   
                जीवन फिर भी चलता है        

    किसी का घर रोशनी से जगमगा रहा है                
 किसी का घर आग से जल रहा है     
किसी के यहाँ गीत गाये जा रहे है    
किसी के यहाँ शोक मनाया जा रहा है        
             जीवन फिर भी चलता है    

कोई हवाई जहाज में सफ़र कर रहा है       
       कोई नंगे पांवों चला जा रहा है 
  कोई वातानुकूल कमरे में सो रहा है    
   कोई फुटपाथ पर रात बिता रहा है 
                जीवन फिर भी चलता है  

  कहीं विजयश्री का जस्न हो रहा है
   कहीं हार का विशलेषण हो रहा है
कही बर्लिन को एक किया जा रहा है   
  कहीं कोसोवो को अलग किया जा रहां है           
                जीवन फिर भी चलता है  

       अगर जीवन का आनंद लेना है 
         तो हमें  हँसते हुए ही जीना है 
             हँसी से मुँह नहीं मोड़ना है
        खुशियाँ से नाता नहीं तोडना है 
                जीवन तो फिर भी चलता है। 




 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

क्या खोया - क्या पाया ?

आज हमारे सम्बन्ध विच्छेद के
दस्तावेज पर न्यायाधीश ने
हस्ताक्षर कर दिया

कर्मकांडी वकीलों ने भी
हमारे रिश्ते की मृत्यु पर गरुड़
पुराण का पाठ पढ़ दिया

मैंने भी तुम्हारे प्यार का
सारा कूड़ा कचरा दिल से खुरच
कर बाहर फैंक दिया

और सुनो ! रिश्ते की कब्र पर
कफ़न गिरा एक दुखद अतित
का अन्त भी कर दिया

तुम्हारे जितने भी पत्र और तस्वीरे थी
उनको भी आज गंगा मे बहा कर
तर्पण कर दिया

लगे हाथ गंगा किनारे तुम्हारी यादों
और अहसासों का पिंडदान
भी कर दिया

दफ़न कर दिया जिन्दगी
का हर वह लम्हा जो तुम्हारे
साथ बिताया

एक लम्बे समय बाद
दिल ने आज राहत ओ सूकून
भरा दिन बिताया

सोच रही हूँ जिंदगी में
मैंने तुम्हारे साथ
क्या खोया - क्या पाया ?


  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

मेरा स्वाभिमान

मेरी शादी की चुन्दड़ी में 
लगे सलमे-सितारे अब मेरी
आत्मा में चुभने लगे हैं 

लग्न और मुहूर्त में
बन्धे ये सारे बन्धन 
मुझे अब झूठे लगने लगे हैं 

मैं नहीं भूला सकती 
अपनी पीड़ा और अपमान 
जो उसने मुझे दिये हैं 

व्यथित शब्दों
के तीर अब मेरे ध्यैर्य की 
आख़िरी सीमा भी लांघ गये हैं 

मेरा स्वाभिमान भी
अब उसके अंहकार के लिए
खतरा बन गया है 

मैंने जितना
समर्पण का भाव रखा 
उतना ही वो निष्ठुर बन गया है 

मैं जीवन संगिनी
या सहभागिनी की जगह
बंदिनी बना दी गयी

कंकरीट में दबी
पगडण्डी की तरह मेरी
हर एक इच्छा दबा दी गयी

मैं अब इस बंधन से
मुक्त होकर अपना नया
जीवन जीना चाहती हूँ

पुरानी यादों को
अब मै हमेशा के लिए
दफना देना चाहती हूँ

अपनी शादी की
चुन्दडी को अब मैं 
उतार देना चाहती हूँ

उसमे लगे 
सलमे-सितारे अब मैं 
उधेड़ देना चाहती हूँ।




 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Thursday, July 19, 2018

आज कहाँ हो तुम ?

आज तुम्हें गए
दस दिन हो गए लेकिन
लगता है जैसे कल की बात हो

पंडित ने आज
दस-कातर करवा दिए
कल नारायण बलि भी करा देगा

भेजेगा छींटे
घर का शौक मिटाने
क्या वो छींटे मेरे मन के
शौक को भी मिटा पायेंगे

बारहवें के बाद तो
बंधु-बांधव भी चले जायेंगे
संग रहेगी केवल तुम्हारी यादें

तुम्हारी यादें
 जो अब जीवन भर
आँखों से अश्रु बन बहेगी 

तुम जो मुझे
कभी उदास देखना भी
पसंद नहीं करती थी

आज मेरी आँखों से
अविरल अश्रु धारा बह रही है 
आज कहाँ हो तुम ?



  ( यह कविता "कुछ अनकही ***"में छप गई है। )

Friday, July 6, 2018

मायाजाल महानगरों का

बचपन में गाँव छोड़   
                                                                       बाहर निकला था
दो पैसा कमाने 

कहाँ-कहाँ नहीं भटका
दो पैसे कमाने के
चक्कर में

त्रिपुरा में अगरतला
आसाम में धुबड़ी
बिहार में मुजफ्फरपुर 
मेघालय में शिलोंग
हरियाणा में फरीदाबाद
बंगाल में कोलकाता

हजारों मीलों का
सफर किया और
हर प्रान्त में एक नया
व्यापार भी शुरू किया

त्रिपुरा में जूट का
बिहार में तिलहन का
शिलोंग में लकड़ी का
हरियाणा में सेरामिक्स का
कोलकाता में आढ़त का

गाँव से निकला तब सोचा था
ढेर सारा पैसा कमा कर
लौट आऊँगा गाँव 

पैसा तो कमाया
मगर नहीं लौट पाया गाँव 
गाँव सदा-सदा के लिए 
सपना बन कर ही रह गया 
 
मेरे गाँव की गलियाँ तो
आज भी जगती है
मेरे लौट आने के इन्तजार में,
मगर मैं फँस गया
महानगरों के मायाजाल में।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )