Tuesday, December 30, 2014

मीठी स्मृतियाँ

एक धरोहर के रूप में
अंतहीन यादें हैं तुम्हारी
मेरे पास  

तुम्हारे जाने के बाद भी 
वो छाई हुई है
मेरे अंतश मन के पास 

समुद्र के किनारे सीपियां चुनना 
गंगा के घाट पर दीपक तैराना 

झाड़ियों से मीठे बैर तोड़ना
खेतो में मोर का नाच देखना

घूँघट की आड़ में
तिरछी नज़रों से झाँकना

होली पर रंग लगाना
दीवाली में दीपक जलाना

गर्मी की रातों में छत पर सोना
दबे पांव आकर आँखें बंद करना

  न जाने कितनी यादें हैं 
कहाँ से शुरु करुं 
और कहाँ अंत करुं

रिमझिम फुहारों सी है
तुम्हारी यादें
जब भी मुझे छूती है
जेठ की गर्मी में भी
   सावन सा सुख देती है।





  [ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]








कोहरा

कोहरे ने कोहराम मचाया
सर्दी को संग लेकर आया

घर-बाहर में ढाया कहर
सबकी सिमटी आज नजर

ओढ़  रजाई  सूरज  सोया
तापमान  निचे  गिर आया

मुँह से भाप निकलती ऐसे
धुँवा  छोड़ता  ईंजन  जैसे

कोहरा अपना रंग दीखाता
ठण्ड से दाँत बजाते बाजा

नहीं दीखती अब पगडंडी
कैसे  खोले घर की कुण्डी।


Sunday, December 28, 2014

गांव की औरत

गांव की औरत
शहरी औरतों की तरह
होटलों में खाना पसंद नहीं करती है

वो अपने घर में बनाया
खाना खा कर ज्यादा संतुष्टी का
अनुभव करती है

वो शहरी औरतों की तरह
बचे खाने को डस्टबीन में
नहीं फेंकती है

वो बची दाल से परांठे
और खट्टे दही से कढ़ी
बना लेती है

वो शहरी औरतों की तरह
अपनी लम्बी काली चोटी को
भी नहीं कटवाती है

वो अपनी भौहें नहीं नुचवाती
क्रीम पावडर से चहरे को भी
नहीं पुतवाती है

फिर भी वो शहर की
किसी कमसिन औरत से
कमतर नहीं लगाती है।  









Friday, December 26, 2014

हमारे जीवन का सफर

हमने जीवन में
कईं कैलेण्डर बदल लिए
कईं नई डायरियाँ भी आई

जीवन में मौसम भी
बदलते रहे
कभी गर्मियाँ तो
कभी सर्दियाँ भी आई

कहने के लिए
हम जीवन जीते रहे

लेकिन असल में हम
केवल दिन काटते रहे

अगर असली जीवन
जिया होता तो हम
घर से बाहर निकलते

बिना किसी पर्व के
अनजाने हाथों में
कुछ उपहार रख आते

देखते अचानक
उन अनजाने चेहरों पर
आई ख़ुशी की लहर

तब समझ में आता कि
हाँ ! आज सफल हुवा है
हमारे जीवन का सफर।


Friday, December 19, 2014

प्रिय कुछ तो मुझको कहती

    देवदूत उतरा अम्बर से   
कांप उठा अनजाने डर से  
     तन्हा दिल मेरा घबराया    
        छाई उदासी मन में 
                                         
         मेरे अंतर्मन की पीड़ा, झर-झर कर नयनों से बहती                                               
                                     प्रिय कुछ तो मुझको कहती।                                         

देख तुम्हारी नश्वर देह को
अवसाद निराशा छाई सब को       
     मेरे मन के उपर छाया  
          अंधकार पल भर में   
                                       
  मुझको दिख रही थी आज, अपनी प्यारी दुनिया ढहती                                           
                                     प्रिय कुछ तो मुझको कहती।                                       

      मधुऋतु में पतझड़ छाया     
  रोम-रोम मेरा अकुलाया
     तन्हाई का जीवन पाया
           जीवन के झांझर में 

एक नजर मुझे देख कर, कुछ अपने मन की कह जाती                                        \
                                                            प्रिय कुछ तो मुझको कहती।                                                                          


 [ यह कविता "कुछ अनकहीं ***" में छप गई है।]


Sunday, December 14, 2014

कुछ मुक्तक

मौसम ने जो करवट बदली ठंडी आई
तुम्हारी ढ़ेरों मधुर यादें दिल में समाई
पचास शरद ऋतुऐं संग - संग बिताई
आज तुम्हारी गर्म साँसों की याद आई।

**********************

दिल तुम्हारे संग धड़कना चाहता है
मन फिर तुमसे मिलना चाहता है
तुम्हारे बिना आज तलक जी रहा हूँ
यह मेरा नहीं इन साँसों का गुनाह है।

********************

दिन रात तुम्हारा इन्तजार रहता है
तुम फिर मिलोगी यह मन कहता है
तुम चली गयी यह मन नहीं मानता
आज भी एक विश्वास दिल में रहता है।
**************************

तुम मेरी जिंदगी में आई वो प्यार था
तुम मेरे ख़्वाबों में समाई वो प्यार था
तुमने मेरा जीवन संवारा वो प्यार था
तुम छोड़ गई, लगता सब ख़्वाब था।

Saturday, December 13, 2014

गर्म कपड़े

जैसे ही जाड़े ने दस्तक दी
बाहर निकल आए गर्म कपड़ें,
तुम्हारी यादें कपूर बन फ़ैली
साथ निकले तुम्हारे जो कपड़े।

प्यार भरी यादें दिल में मचली
बाहर निकले संग-संग कपड़े,
वो ठंडी रातें और प्यारी शरारते
याद दिला रहें ये गर्म कपड़े।

यादों में समाई वो गर्म साँसें
जैसे ही निकले संदूक से कपड़े,
भूलाना चाहूँ तो भी कैसे भुलाऊँ
मखमली यादें संग लाए कपड़े।


Monday, December 1, 2014

यह आप कहते हैं

हमने साथ में जीने मरने की कसमें खाई थी                          
 किसने  साथ निभाया है, यह आप कहते हैं।                                                          
                                                              
 मेरी जिंदगी एक, ठहरा हुवा पल रह गई है                  
                       जीवन कभी नहीं ठहरा, यह आप कहते हैं।                                        

वो फिर से मिलने का वादा, कर के ही चली जाती                                                                                         
  जाने वाले लौट कर नहीं आते, यह आप कहते हैं।                                                                                         

            भरी बहारों में, मेरा गुलसन वीरान हो गया                               
         पतझड़ भी आता है,यह आप कहते हैं।                          

 सूरत तो सूरत, उसका तो नाम भी प्यारा था                        
चली गई उसे भूल जाओ, यह आप  कहते हैं।                                                  
             
           कब सोचा था, सुहाने सपने पल में मिट जायेंगें                        
  धूप-छाँव का खेल है जिंदगी, यह आप कहते हैं।                 

                
 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]