एक धरोहर के रूप में
अंतहीन यादें हैं तुम्हारी
मेरे पास
तुम्हारे जाने के बाद भी
वो छाई हुई है
मेरे अंतश मन के पास
समुद्र के किनारे सीपियां चुनना
गंगा के घाट पर दीपक तैराना
झाड़ियों से मीठे बैर तोड़ना
खेतो में मोर का नाच देखना
खेतो में मोर का नाच देखना
घूँघट की आड़ में
तिरछी नज़रों से झाँकना
तिरछी नज़रों से झाँकना
होली पर रंग लगाना
दीवाली में दीपक जलाना
गर्मी की रातों में छत पर सोना
दबे पांव आकर आँखें बंद करना
न जाने कितनी यादें हैं
कहाँ से शुरु करुं
और कहाँ अंत करुं
रिमझिम फुहारों सी है
तुम्हारी यादें
जब भी मुझे छूती है
जेठ की गर्मी में भी
सावन सा सुख देती है।
रिमझिम फुहारों सी है
तुम्हारी यादें
जब भी मुझे छूती है
जेठ की गर्मी में भी
सावन सा सुख देती है।
[ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]
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