गांव की औरत
शहरी औरतों की तरह
होटलों में खाना पसंद नहीं करती है
वो अपने घर में बनाया
खाना खा कर ज्यादा संतुष्टी का
अनुभव करती है
वो शहरी औरतों की तरह
बचे खाने को डस्टबीन में
नहीं फेंकती है
वो बची दाल से परांठे
और खट्टे दही से कढ़ी
बना लेती है
वो शहरी औरतों की तरह
अपनी लम्बी काली चोटी को
भी नहीं कटवाती है
वो अपनी भौहें नहीं नुचवाती
क्रीम पावडर से चहरे को भी
नहीं पुतवाती है
शहरी औरतों की तरह
होटलों में खाना पसंद नहीं करती है
वो अपने घर में बनाया
खाना खा कर ज्यादा संतुष्टी का
अनुभव करती है
वो शहरी औरतों की तरह
बचे खाने को डस्टबीन में
नहीं फेंकती है
वो बची दाल से परांठे
और खट्टे दही से कढ़ी
बना लेती है
वो शहरी औरतों की तरह
अपनी लम्बी काली चोटी को
भी नहीं कटवाती है
वो अपनी भौहें नहीं नुचवाती
क्रीम पावडर से चहरे को भी
नहीं पुतवाती है
फिर भी वो शहर की
किसी कमसिन औरत से
किसी कमसिन औरत से
कमतर नहीं लगाती है।
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