एक बेटी का बाप
अनेक मजबूरियों के साथ
जीवन जीता है
बहुत कुछ करने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
कुछ नहीं कर पाने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
कुछ नहीं कर पाने की
मजबूरी के साथ जीवन जीता है
जनक ने अपनी बेटी के लिए
स्वयंवर आयोजित किया
कि सीता को योग्य वर मिले और
वो सुखी जीवन जी सके
स्वयंवर आयोजित किया
कि सीता को योग्य वर मिले और
वो सुखी जीवन जी सके
लेकिन सीता को
जंगलो में भटकना पड़ा
सामर्थ्यवान होते हुए भी
जंगलो में भटकना पड़ा
सामर्थ्यवान होते हुए भी
जनक कुछ नहीं कर सके
आज भी
बेटी का बाप
बेटी का बाप
बेटी के सुखी जीवन के लिए
अपना सब कुछ दाँव पर लगाता है
लेकिन बेटी को
आज भी समाज में
सब कुछ सहना और
झेलना पड़ता है
आज भी समाज में
सब कुछ सहना और
झेलना पड़ता है
पुरखों के
जमाने से चले आ रहे
समाज के जंग लगे दस्तूरों को
आज भी निभाना पड़ता है
बेटी का बाप
बहुत कुछ कर सकने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
कुछ नहीं कर पाने की
बहुत कुछ कर सकने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
कुछ नहीं कर पाने की
मज़बूरी के साथ जीता है।
कोलकता
१० अक्टूम्बर २०११
१० अक्टूम्बर २०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
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