गंगा दशहरा पर हम हरिद्वार जाते थे साथ-साथ
जीवन के राह-सफर में हम चले थे साथ-साथ
अब कभी हरिद्वार जाऊंगा तो तुम याद आओगी।
छुट्टियों में गांव घूमने जाते थे हम साथ-साथ
अब कभी गाँव जाऊंगा तो तुम याद आओगी।
शादी की स्वर्ण-जयंती मनाई थी साथ-साथ
अगली साल गिरह पर तुम याद आओगी।
दुनियाँ को घूम कर देखा था हम ने साथ-साथ
अब कभी घूमने जाऊंगा तो तुम याद आओगी।
अब कभी गाँव जाऊंगा तो तुम याद आओगी।
पिछले सावन खेत में भीगे थे हम साथ-साथ
अब जब खेत जाऊंगा तो तुम याद आओगी।
शादी की स्वर्ण-जयंती मनाई थी साथ-साथ
अगली साल गिरह पर तुम याद आओगी।
जीवन के राह-सफर में हम चले थे साथ-साथ
अब जीवन की सुनी राहों में तुम याद आओगी।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
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