बाबूजी
जब खाना खाने बैठते तब माँ
आसन बिछा कर पाटा लगा देती
बगल में
एक लोटा और गिलास
पानी का भर कर रख देती
बाबूजी
लोटे से हाथ धोकर
शांत भाव से आसन पर बैठ जाते
माँ
थाली में खाना परोस कर
बगल में पंखा झलने बैठ जाती
बाबूजी
मनुहार के साथ खाना खाते हुए
माँ को घर-बाहर की बाते बताते
बाबूजी
खाना खाने के बाद जब हाथ पौछते
माँ गमछा पकड़ा देती
माँ
जब जूठी थाली उठाती तो उसके चेहरे
पर एक संतोष का भाव होता
माँ
ही समझ पाती उस आनंद को
दुसरा नहीं समझ पाता
आज
भाग दौड़ भरी जिंदगी में कोई इस
आनंद की कल्पना भी नहीं कर सकता।
[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]
जब खाना खाने बैठते तब माँ
आसन बिछा कर पाटा लगा देती
बगल में
एक लोटा और गिलास
पानी का भर कर रख देती
बाबूजी
लोटे से हाथ धोकर
शांत भाव से आसन पर बैठ जाते
माँ
थाली में खाना परोस कर
बगल में पंखा झलने बैठ जाती
बाबूजी
मनुहार के साथ खाना खाते हुए
माँ को घर-बाहर की बाते बताते
बाबूजी
खाना खाने के बाद जब हाथ पौछते
माँ गमछा पकड़ा देती
माँ
जब जूठी थाली उठाती तो उसके चेहरे
पर एक संतोष का भाव होता
माँ
ही समझ पाती उस आनंद को
दुसरा नहीं समझ पाता
आज
भाग दौड़ भरी जिंदगी में कोई इस
आनंद की कल्पना भी नहीं कर सकता।
[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]
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