सर्दियों में जब कभी भी
गाँव की तरफ जाता
गाँव का भोगा बचपन सपने
जैसा सामने आ जाता
बचपन के वो दिन जब
जाड़े की सर्दी में ठिठुरते
हम सब बच्चे अल सुबह
बड़ी माँ के घर चले जाते
सूरज के सामने वाले
चबूतरे पर कम्बल और
रजाई में दुबक कर सभी
एक साथ बैठ जाते
"सुरजी बाबा सुरजी बाबा
तावड़ो ही काढ़ थारा
छोरा-छोरी सींया ही मरै"#
की जोर-जोर से रट लगाते
सूरज की पहली किरण
ज्योंही चबूतरे की दिवाल
पर उतरती हम सभी के
चहरे खिल उठते
बड़ी माँ ठंडी मिस्सी रोटी
पर तेल लगा गरम करती
और हम सबको गरम-गरम
खाने को देती।
अब न वो दिन रहे
न तेल लगी रोटी रही
न देने वाली बड़ी माँ रही
लेकिन यादेँ है आज भी ताज़ी।
# हे सूर्य भगवान धूप निकालो, तुम्हारे बच्चे सर्दी से मर रहे हैं।
[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]
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