समन्दर के किनारे
देखा लहरें आ रही थी
किनारे से टकरा कर जा रही थी
जीवन में दुःख-सुख भी तो
इसी तरह से आते-जाते हैं
समन्दर के किनारे
पड़ी रेत को मुट्ठी में उठाया
देखा कण-कण निकलता जा रहा है
जीवन भी तो इसी तरह क्षण-क्षण
बीतता जा रहा है।
जीवन भी तो इसी तरह क्षण-क्षण
बीतता जा रहा है।
समन्दर के किनारे
पड़ी सीपियों को देखा जो
अपना अनमोल मोती खो चुकी थी
मानव जीवन भी तो अनमोल है जिसे
हम व्येर्थ में खोते जा रहे हैं
किनारे से टकराती
पीछे से लहर की आवाज आई
मैं जीवन की बाजी जीत गयी
समन्दर बोला-अब लौटजा
समन्दर बोला-अब लौटजा
तुम्हारी अवधि बीत गयी ।
[ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]
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