रास्ते की ठोकरों को झेलता रहा जूता
पाँवों को ठोकर से बचाता रहा जूता
सर्दी हो या गर्मी, बसंत हो या बरसात
हर मौसम मे साथ निभाता रहा जूता
रेगिस्तान की बालू मे झुलस्ता रहा जूता
पहाड़ों के पत्थरो से देह रगङता रहा जूता
सियाचीन की ठंडक मे मुस्तेद रहा जूता
हर जगह पाँवों का रक्षक बनता रहा जूता
रैस के मैदान मे दौङता रहा जूता
खेल के मैदान मे खेलता रहा जूता
जंग के मैदान मे लड़ता रहा जूता
पाँवों को हिम्मत बँधाता रहा जूता
जंगलो की खाक छानता रहा जूता
रास्तों का भूगोल लिखता रहा जूता
पैरो के पसीने को चखता रहा जूता
घर के दरवाजे पर पड़ा रहा जूता
र्हिमालय की चोटी को लाँघ आया जूता
अंटार्टिका की बर्फ को चूम आया जूता
चाँद तक का सफर कर आया जूता
चाँद तक का सफर कर आया जूता
फिर भी नाम रोशन नही कर पाया जूता
इन्सान की कामयाबी मे साथ रहा जूता
होली पर गले का हार बनता रहा जूता
जब से नेताऒं के सिर पड़ने लगा जूता
तभी से अपनी पहचान बना पाया जूता।
[ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]
[ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]
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