प्रत्येक महीने हम
बदलते रहते है कलैन्डर
लेकिन नही बदलते जीवन
तारीख़े लाल घेरों
में ही क़ैद रह जाती है
मुट्ठी से बालू की तरह
खिसक जाता है जीवन
न जाने कितनी
पूनम की रातें
दरवाजे की सांकल
बजा कर ही लौट जाती है
पूरब की बंसन्ती हवाऐं
बिना मन को झकझोङे
ही चली जाती है
चैत की औस-भीगी सुबह
हमारी अंगड़ाई से पहले ही
निकल जाती है
आजकल तो धूप भी
बंद दरवाजों को देख कर
सीढ़ियों से ही लौट जाती है
जीवन का आनन्द लेना है
तो प्रकृति से जुड़ना होगा
किसी नौका में बैठ कर नदी
की सैर पर जाना होगा
पहाड़ की ऊँची
चोटी पर चढ़ना होगा
बादलो की कोख से निकलते
सूर्योदय को देखना होगा
फुलो पर मंडराते भँवरों
का गुंजन सुनना होगा
डूबते हुए सूर्यास्त का
नजारा देखना होगा
यदि जीवन का सच्चा आनंद लेना है
तो कलैण्डर नहीं जीवन को
बदलना होगा।
[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]
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