Tuesday, August 28, 2012

ठांइ-ठौंङ (राजस्थानी कविता )

पंछीड़ा
तू कियां सिंझ्या
ढळया पेली
आय'र बैठ जावै
साग्ये रूखं माथै
सागी डाली माथै 
ठांइ-ठौंङ                     


कांई एनाण-सैनाण है थार कनै
न कदैइ तू मारग भूल 
नीं तू कदैही भटकै
चाहै बिरखा बरसो
चाहै  बादळा  गरजो
तू  पूग ही ज्यावे पाछो
ठांइ-ठौंङ                   


म्हें तनै देख;र 
लगाई ही पांख्या
उड़ग्यो आकासा मायं 
छोड़ गाँव,घर,आंगणो
पण आज तांइ
पाछो कोनी पूग सक्यो
ठांइ-ठौंङ
                  

आज भी चेतै आवै 
गाँव का खेत
ताजी पुन रा लहरका
अगुण कूवै रो मीठो पाणी 
आज भी फङफङावै पांख्या
पुगण ताई ठांइ-ठौंङ                         
                            

पंछीड़ा तू आय
बैठ म्हारै कनै
बताय म्हने भी रसतो
कियांई पाछो पूग जावूँ
गाँव के घर में ठांइ-ठौंङ।  



[यह कविता "एक नया सफर" नामक पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]


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