तुम अपना घर चाहे जीतनी रोशनी से सजाओ
मगर किसी कोठरी का दीपक बुझा कर नहीं।
तुम अपने लिए चाहे जितने ऐशगाह बनाओ
मगर किसी का आशियाना उजाड़ कर नहीं।
तुम अपने घर में चाहे जीतनी खुशियाँ मनाओ
मगर किसी बेबस की खुशियाँ छीन कर नहीं।
तुम अपने लिए चाहे जितने पकवान बनाओ
मगर किसी गरीब का निवाला छीन कर नहीं।
तुम अपने लिए चाहे जितने फूल बिछाओ
मगर किसी की राह में कांटे बिछा कर नहीं।
मगर किसी कोठरी का दीपक बुझा कर नहीं।
तुम अपने लिए चाहे जितने ऐशगाह बनाओ
मगर किसी का आशियाना उजाड़ कर नहीं।
तुम अपने घर में चाहे जीतनी खुशियाँ मनाओ
मगर किसी बेबस की खुशियाँ छीन कर नहीं।
तुम अपने लिए चाहे जितने पकवान बनाओ
मगर किसी गरीब का निवाला छीन कर नहीं।
तुम अपने लिए चाहे जितने फूल बिछाओ
मगर किसी की राह में कांटे बिछा कर नहीं।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
No comments:
Post a Comment